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पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/२१४

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अयोध्या का इतिहास

निकलीं । उन मुहरों को महाराज मानसिंह ने आर् साहब को सौंप दिया। प्रार् साहब ने उन मुहरों को देखा तो बनावटी फरमान पर उन्हीं में की कुछ मुहरें लगी थीं। पार् साहब ने उन मुहरों को बादशाही दर्बार में भेज दिया। इस कारगुजारी के बदले बादशाह ने राजा मानसिंह को राजे-राजगान का पद दिया। इसके कुछ दिन पीछे लखनऊ की बादशाही का अन्त हो गया और अंगरेजी राज स्थापित हुआ।

गदर हो जाने पर फैजाबाद में दो पल्टनें, एक रिसाला और दो तोप- खाने बागियों के हाथ में रहे और सुल्तानपूर की पल्टन भी उनसे मिलने पा रही थी। महाराजा मानसिंह के पास कोई सामान न था तो भी उन्होंने अपना धन और अपना प्राण अंग्रेजों को निछावर करके फैजाबाद के तीस अंग्रेजों मेमों और बच्चों समेत अपने शाहगंज के किले में सुरक्षित रक्खा और आप विद्रोहियों का सामना करने के के लिये डटे रहे । फिर उनको अपने सिपाहियों की रक्षा में गोला गोपालपूर पहुंचा दिया। इसी अवसर में चार मेमें और आठ अंग्रेजी बच्चे घाघरे के मांझा में बिना अन्न-जल मारे-मारे फिरते थे। महाराजा साहब ने सवा- रियाँ भेज कर उन्हें बुला लिया और पन्द्रह दिन तक अपने घर में रक्खा और फिर उनके कहने पर सौ कहार और ३६ पालकी कर के उनको प्रासबर्न साहब के पास बस्ती भेज दिया। इस पर लारेन्स साहब बहादुर ने उनको दो लाख रुपया और जागीर देकर महाराजा का पद दिया और यह भी कहा कि महाराज के वकील को अवध में जमीदारी दी जायगी।

इसी समय बागियों ने शाहगंज की गढ़ी घेर ली और महाराजा साहब के लाखों रुपये के मकान खोद डाले और जला दिये और बहुत सा धन लूट ले गये। परन्तु डेढ़ महीने के घेरे पर बड़ी वीरता से महाराजा साहब ने विद्रोहियों को मार भगाया । इसी अवसर पर राजा रघुवीर सिंह के घर का बहुत सा सामान जो अयोध्या में लाला ठाकुर प्रसाद[] के घर


  1. राज के वकील और मेरी सी के चाचा ।