पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/२१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७८
अयोध्या का इतिहास

महाराज ने एक वसियतनामा लिखकर एक सन्दूक़चे में बन्द कर दिया था। वह सन्दूक़चा फैज़ाबाद के हाकिमों ने खोला तो उसमें लिखा था कि हमारे मरने पर हमारी विधवा महारानी सुभाव कुँवरि उत्तराधिकारिणी होगी। महारानी सहिबा ने उसी वसियतनामे के अधिकार से राजा रघुवीरसिंह के कनिष्ठ पुत्र लाल त्रिलोकीनाथ सिंह को गोद ले लिया। महाराजा मानसिंह के केवल एक बेटी श्रीमती ब्रजविलास कुँवरि उपनाम बच्ची साहिबा थीं जिनका विवाह आरे के रईस बाबू नरसिंह नारायण जी के साथ हुआ था। उन्हीं के पुत्र लाल प्रताप नारायण सिंह हुये जो ददुआ साहब के नाम से प्रसिद्ध थे।

लाल प्रतापनारायण सिंह ने अदालत में दावा कर दिया कि महाराजा मानसिंह के उत्तराधिकारी हम हैं। इस पर कई वर्ष तक मुकदमा चला। अन्त के सन् १८८७ में प्रिवी कौंसिल से उनको डिग्री हो गई और वे मेहदौना राज के मालिक हो गये।

महाराजा प्रतापनारायण सिंह ने बीस वर्ष राज किया। इनका समय विद्याव्यसन में बीतता था। इमारत बनवाने का बड़ा शौक़ था। अयोध्या का राजसदन और उसके भीतर कोठी मुक्ताभास उनकी सुरुचि और कारीगरी के अच्छे नमूने हैं। उनके सुप्रबन्ध से प्रसन्न होकर अंग्रेज़ी सरकार ने उनको महाराज अयोध्या (अयोध्यानरेश) की पदवी दी। विद्वत्ता के कारण उनको महामहोपाध्याय का पद मिला। महाराजा अनेक बार बड़े लाद की कौंसिल के सदस्य हुये और अपना काम बड़ी योग्यता से किया। उनके दरबार में विद्वानों की बड़ी प्रतिष्ठा होती थी। इस इतिहास के लेखक पर उनकी विशेष कृपा थी। उनके नायब राय राघवप्रसाद की भगिनी जिसका परसाल त्रिवेणी-पास हो गया इतिहास लेखक को ब्याही थी। इस कारण भी दरबार में विशेष मान था। महाराज प्रतापनारायण सिंह ने राय साहब के देहान्त होने पर मुझसे अनेक बार कहा कि अपने घर का काम देखो।