यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९५
रघु का दिग्विजय
चढ़ि गज सरिस महेन्द्र पहाड़ा।
निज प्रताप अंकुस तहँ गाड़ा॥
लै गज-यूथन अस्त्र चलाई।
मिल्यो कलिंग-भूप तेहि आई॥
◎◎◎◎
सुलभ जानि जिन जीति न मांगी।
महा सिन्धु तीरहि तहँ लागी॥
पूग वृक्ष जहँ सोह विशाला।
गयो अगस्त्य दिशा नरपाला॥
◎◎◎◎
भई कावेरी महँ सोई देखी।
संका सरिपति-चित्त बिसेखी॥
चलि भड़काइ मरीच विहंगा।
परी मलयगिरि तट चतुरंगा॥
◎◎◎◎
पै रविकुल शशि तेज अनूपा।
नहि सहि सक्यो पाण्ड्य-कुल भूपा॥
मिलत सिन्धु जहँ ताम्रपर्णि सरि।
तहँ नृपविनय सहित रघुपद परि॥
मानहुँ निज जस संचित कीन्हा।
तहँ उपजत मोती तेहि दीन्हा॥
चल्यो नरेश शत्रुबल-कन्दन।
लगे जासु ऊपर बहु चन्दन॥
इर्दुर मलय नाम गिरि दोई।
दिसि के कुचन बीच जनु होई॥