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अयोध्या का इतिहास
दुसह अरिन कहँ जासु प्रकासू।
सो नृप तज्यो सिन्धु-तट तासू॥
महि-नितम्ब सम वस्त्र बिहाये।
सोइ गिरि सह्य निकट चलि आये॥
पश्चिम दिसि नृप जीतन काजा।
चलत अवध-नृप सहित समाजा॥
परस राम बस सिन्धु हटावा।
लग्यो मनहुँ गिरितट फिरि आवा॥
निरखि ताहि केरल-पुरनारी।
भूषन दिये त्रास बस डारी॥
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चलि मुरलासरि मारुत संगा।
परि मुरि दलजीरन के अंगा॥
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मांगे रहन हेत कछु ठामा।
महासिंधु सन पायो रामा॥
अपरान्तक नृप मिस सोइ सागर।
अवध-नरेंस रघुहि दीन्हो कर॥
करि गज-दसन छिद्र जयचीन्हा।
निज जय खम्भ त्रिकूटहि कीन्हा॥[१]
पुनि पारस जीतन थल राहा।
चल्यो सेन संग कोसलनाहा॥
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- ↑ त्रिकूट लंका में था। समझ में नहीं आता कि पाण्ड्य देश से रघु लंका क्यों न गये।