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रघु का दिग्विजय
पश्चिम दिसि सोई यवनन संगा।
चलत युद्ध महँ चढ़े तुरंगा॥
बिपुल धूरि सुनि धनु-टंकारा।
तासु घोर रन लोग विचारा॥
तासु वीर तहँ मालन मारी।
दाढ़ी लसत सीस महि डारी॥
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चहुँदिसि लसत दाख तरु जाके।
चाम बिछाइ सूर रनबाँके।
करत पान बारुनी सुबासा।
कीन्हों बैठि समरश्रम नासा॥
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तजि दच्छिन सोई भानु समाना।
दिसि कुबेर कहँ कीन्ह पयाना॥
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तहँ सँहारि हूनकुल बीरा।
बल दिखाइ निज रधु रनधीरा॥
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रन कम्बोज देस नरपाला।
सके न सहि रघु तेज बिशाला॥
कटत छाल परि गज-आलाना।
दबे भूप अखरोट सामाना॥
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रविकुल-चन्द तुरंग असवारा।
चढ़यो हिमालय नाम पहारा॥