कही। सत्यव्रत के मरने पर हरिश्चन्द्र राजा हुआ। इसके राज्य के आरम्भ में विश्वामित्र प्रबल थे। परन्तु उन्हें अयोध्या से हट जाना पड़ा और तपस्या करने पुष्कर चले गये। हरिश्चन्द्र के राज्य में वसिष्ठ फिर घुसे, और उन्हीं की चाल से राजकुमार रोहित को फिर विश्वामित्र की शरण जाना पड़ा।
ये दोनों वसिष्ठ भी एक ही थे।
मत्स्यपुराण में लिखा है कि कार्तवीर्य अर्जुन ने आपव वसिष्ठ के आश्रम को जला दिया, जिससे आपव ने उसको शाप दिया और वह परशुराम के हाथ से मारा गया। इस वसिष्ठ का नाम देवराज था।
हरिश्चन्द्र से आठ पीढ़ी पीछे बाहु के राज में फिर एक वसिष्ठ प्रकट हुए और जब वाहु पुत्र सगर ने शकों यवनों को परास्त किया तो वसिष्ठ ने बीच में पड़कर उनके प्राण बचा लिये और उनको जीवन-मृत-प्राय करा दिया। इस वसिष्ठ का उपनाम अथर्वनिधि भी है।
पांचवें वसिष्ठ कल्माषपाद के समय में थे। अर्वुदमाहात्म्य मेंलिखा है कि एक दिन राजा मित्रसह कल्माषपाद[१] शिकार को जा रहे थे रास्ते में वसिष्ठ के बेटे शक्तृ से तकरार हो गई जिससे कल्माषपाद राक्षस हो गया और शक्त और उसके भाइयों को खा गया। पद्मपुराण और रघुवंश के अनुसार दिलीप वसिष्ठ के आश्रम में गाय चराने गये जिसके आशीर्वाद से रघु का जन्म हुआ। इस वसिष्ठ की भी उपाधि अथर्वनिधि है। दशरथ और श्रीरामचन्द्र के दरबार में भी वसिष्ठ कुल-गुरु थे। इनके अतिरिक्त एक वसिष्ठ भरतों के राजा संवरण के पास वहां पहुंचे जहां संवरण पांचाल राजा सुदास से हारकर सिन्धु महानद के तट से पर्वत के निकट तक एक फुलवारी में सौ बरस से रहते थे।
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प्रथाथवनिधेस्तस्य विजितारिपुरः पुरा।
अर्थ्यामर्थपतिर्वाचमाददे वदतां वरः। विष्णुपुराण १.२६।