पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/२५३

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उपसंहार (च)
हनूमान

हनूमानजी श्रीरघुनाथ जी के परमभक्त बड़े वीर और बड़े ज्ञानी थे। इनके जन्म की कथा वाल्मीकीय रामायण किष्किन्धा काण्ड में यों लिखी है कि जब सीताजी की खोज करते-करते वानरसेना समुद्र-तट पर पहुंची तो अथाह जल देख कर सब घबरा गये। अङ्गद ने धीरज धरके उनसे कहा कि यह समय विक्रम का है विषाद का नहीं। विषाद से पुरुष का तेज नष्ट हो जाता है और तेजह़ीन पुरुष का कोई काम सिद्ध नहीं होता। तुम लोग हमें यह बताओ कि तुममें से कौन वीर समुद्र फाँद सकता है? इस पर अनेक वानर बोल उठे किसी ने कहा कि हम तीस योजन फाँद सकते हैं, किसी ने कहा चालीस योजन; जाम्बवान ने नव्वे योजन फाँदने का बल बताया। इस पर अङ्गद ने कहा कि समुद्र की चौड़ाई सौ योजन है, सो हम फाँदने को तो फाँद जायँगे किन्तु यह निश्चय नहीं है कि लौट भी सकेंगे। जाम्बवान् बोला कि आप सब के स्वामी हैं, आप को न जाना चाहिये। इस पर अङ्गद ने उत्तर दिया कि न हम जायँ और न कोई जाय तो हम लोगों को यहीं मर जाना चाहिये, क्योंकि सुग्रीव की आज्ञा है कि बिना सीताजी की खोज लगाये हमको मुँह न दिखाना। जब यह बातें हो रही थीं तो हनूमानजी एकान्त में चुप बैठे थे। जाम्बवान ने कहा कि तुम चुप-चाप क्यों बैठे हो? तुम्हारी भुजाओं में इतना बल है जितना गरुड़ के पंखों में है। तुम्हारी माता अञ्जना पहिले पुञ्जिकस्थला-नाम अप्सरा थीं; वह ऋषि के शाप के कारण वानर हो गई और कुञ्जर नाम वानर-श्रेष्ठ के घर में जन्मी; उनका विवाह केशरी के साथ हुआ था। एक बार वर्षा ऋतु में वह एक पहाड़ पर घूम रही थीं कि पवन ने उनका अञ्चल

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