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अयोध्या का इतिहास

विचार और अक्षम प्रतिभा के लिये उसकी बहुत ख्याति थी। असङ्ग का शिष्य बुद्धसिंह जिस प्रकार बड़ा बुद्धिमान और सुप्रसिद्ध हुआ उसी प्रकार उसके गुप्त और उत्तम चरित्रों की थाह भी किसी को नहीं मिली।

ये दोनों या तीनों महात्मा प्रायः आपस में कहा करते थे कि हम सब लोग अपने चरित्रों को इस प्रकार सुधार रहे हैं कि जिसमें मृत्यु के बाद मैत्रेय भगवान के सामने बैठ सकें। हम में से जो कोई प्रथम मृत्यु को प्राप्त हो कर इस अवस्था को पहुँचे (अर्थात् मैत्रेय के स्वर्ग में जन्म पावे) वह एक बार वहां से लौट कर अवश्य सूचना देवेगा कि हम उसका वहां पहुँचा मालूम कर सकें।

सब से पहिले बुद्धसिंह का देहान्त हुआ। तीन वर्ष तक उसका कुछ समाचार किसी को मालूम नहीं हुआ। इतने में वसुबन्धु बोधिसत्व भी स्वर्गगामी हो गया। छः मास इसको भी व्यतीत हो गये परन्तु इसका भी कोई समाचार किसी को विदित नहीं हुआ। जिन लोगों का विश्वास नहीं था वह अनेक प्रकार की बातें बना कर हंसी उड़ाने लगे कि वसुबन्धु और बुद्धसिंह का जन्म नीच योनि में हो गया होगा इसी से कुछ दैवी चमत्कार नहीं दिखाई पड़ता।

एक समय अङ्ग बोधिसत्व रात्रि के प्रथम भाग में अपने शिष्यों को बता रहे थे कि समाधि का प्रभाव अन्य पुरुषों पर किस प्रकार होता है, उसी समय अकस्मात् दीपक की ज्योति ठंढी हो गई और उसके स्थान में बड़ा भारी प्रकाश फैल गया। फिर ऋषिदेव आकाश से नीचे उतरा और मकान की सीढ़ियों पर चढ़ कर असङ्ग के निकट आया और प्रणाम करने लगा। असङ्ग बोधिसत्व ने बड़े प्रेम से पूछा कि तुम्हारे आने में क्यों देर हुई? तुम्हारा अब नाम क्या है? उत्तर में उसने कहा "मरते ही मैं तुषित स्वर्ग में मैत्रेय भगवान के भीतरी