समाज में पहुँचा और वहां एक कमल के फूल में उत्पन्न हुआ। शीघ्र ही कमल पुष्प के खोले जाने पर मैत्रेय ने बड़े शब्द से मुझसे कहा, "ऐ महाविद्वान! स्वागत, हे महाविद्वान स्वागत! इसके उपरान्त मैंने प्रदक्षिणा कर के बड़ी भक्ति से उनको प्रणाम किया और फिर अपना वृत्तान्त कहने के लिये सीधा यहां चला आया। असङ्ग ने पूछा "और बुद्धसिंह कहां है?" उसने उत्तर दिया "जब मैं मैत्रय भगवान की प्रदक्षिणा कर रहा था उस समय मैंने उसको बाहिरी भीड़ में देखा था, वह सुख और आनन्द में लिप्त था। उसने मेरी ओर देखा तक नहीं फिर क्या उम्मीद की जा सकती है कि वह यहां तक अपना हाल कहने आवेगा?" असङ्ग ने कहा "यह तो तय हो गया, परन्तु अब यह बताओ कि मैत्रेय भगवान् का स्वरूप कैसा है? और कौन से धर्म की शिक्षा वह देते हैं।" उसने उत्तर दिया कि "जिहा और शब्दों में इतनी सामर्थ्य नहीं है जो उनकी सुन्दरता का बखान किया जा सके। मैत्रेय भगवान् क्या धर्म सिखाते हैं उसके विषय में इतना ही यथेष्ट है कि उनके सिद्धान्त हम लोगों से भिन्न नहीं हैं। बोधिसत्व की सुस्पष्ट बचनावली ऐसी शुद्ध कोमल और मधुर है जिसके सुनने में कभी थकावट नहीं होती और न सुननेवाले की कभी तृप्ति ही होती है।"
असङ्ग बोधिसत्व के भग्नस्थान से लगभग ४० ली उत्तर-पश्चिम चल कर हम एक प्राचीन संघाराम में पहुँचे जिसके उत्तर तरफ़ गंगा नदी बहती हैं। इसके भीतरी भाग में ईंटों का बना हुआ एक स्तूप लगभग १०० फीट ऊँचा खड़ा है। यही स्थान है जहां पर वसुबन्धु बोधिसत्व को सर्वप्रथम महायान सम्प्रदाय के सिद्धान्तों के अध्ययन करने की अभिलाषा उत्पन्न हुई थी। उत्तरी भारत से चल कर जिस समय वसुबन्धु इस स्थान पर पहुँचा उस समय असङ्ग बोधिसत्व ने अपने अनुयायियों को उससे मिलने के लिये भेजा और वे लोग इस