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अयोध्या का इतिहास

स्थान पर आकर उससे मिले। असङ्ग का शिष्य जो बोधिसत्व के द्वार के बाहर लेटा था, वह रात्रि के पिछले पहर में दशभूमि सूत्र का पाठ करने लगा। वसुबन्धु उसको सुन कर और उसके अर्थ को समझ कर बहुत विस्मित हो गया। उसने बड़े शोक से कहा कि यह उत्तम और शुद्ध सिद्धान्त यदि पहले से मेरे कान में पड़ा होता तो मैं महायान सम्प्रदाय की निन्दा कर के अपनी जिह्वा को क्यों कलङ्कित कर पाप का भागी बनता? इस प्रकार शोक करते हुये उसने कहा कि अब मैं अपनी जिह्वा को काट डालूंगा। जिस समय छुरी लेकर वह जिह्वा काटने के लिये उद्यत हुआ उसी समय उसने देखा कि असङ्ग बोधिसत्व उसके सामने खड़ा है और कहता है कि "वास्तव में महायान-सम्प्रदाय के सिद्धान्त बहुत शुद्ध और परिपूर्ण हैं; सब बुद्धदेवों ने जिस प्रकार इसकी प्रशंसा की है उसी प्रकार सब महात्माओं ने इसको परिवर्द्धित किया है। मैं तुमको इसके सिद्धान्त सिखाऊंगा। परन्तु तुम खुद इसके तत्व को अब समझ गये हो और जब इसको समझ गये और इसके महत्व को मान गये तब क्या कारण है कि बुद्ध भगवान की पुनीत शिक्षा के प्राप्त होने पर भी तुम अपनी जिह्वा को काटना चाहते हो। इससे कुछ लाभ नहीं है ऐसा मत करो। यदि तुमको पछतावा है कि तुमने महायान सम्प्रदाय की निन्दा क्यों की तो तुम अब उसी जबान से उसकी प्रशंसा भी कर सकते हो। अपने व्यवहार को बदल दो और नवीन ढंग से काम करो यही एक बात तुम्हारे करने योग्य है। अपने मुख को बन्द कर लेने से अथवा शाब्दिक शक्ति को रोक देने से कुछ लाभ नहीं होगा।" यह कहकर वह अन्तर्ध्यान हो गया।

वसुबन्धु ने उसके बचनों की प्रतिष्ठा करके अपनी जिह्वा काटने का विचार परित्याग कर दिया और दूसरे ही दिन से असङ्ग बोधिसत्व के पास जाकर महायान सम्प्रदाय के उपदेशों का अध्ययन करने लगा। इसके सिद्धान्तों को भली भांति मना करके उसने एक सौ से अधिक