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पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/३५

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अयोध्या का इतिहास

में यह चलन है कि सूर्यास्त के पीछे भोजन नहीं करते। एक दिन बड़े भाई सहेट सूर्यास्त के समय मृगया से लौटे। उनके छोटे भाई की स्त्री दिव्या कोठे पर खड़ी थीं, उसके बदन के प्रकाश से उजाला हो रहा था। राजा ने यह समझ कर कि अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है भोजन कर लिया। जब वह दिव्या वहाँ से हट गयी तब राजा को मालूम हुआ कि रात बहुत बीत चुकी है। उन्होंने अपने सन्देह को प्रकट किया तब सेवकों ने असली हाल उनसे कहा। अनन्तर राजा ने अनुजबधू को देखने की उत्कट लालसा प्रकट की, परन्तु कार्य्य धर्म-विरुद्ध था। तुरंत पृथ्वी फट गई और राजा का सम्पूर्ण परिवार उसमें समा गया और नगर उलट गया।

महाकवि कालिदास ने लिखा है कि महाराजा दिलीप जब यात्रा करते हुये गुरु वसिष्ठ के आश्रम को गये तब मार्ग में घोषों ने उन्हें ताज़ा मक्खन अर्पण किया। यह आश्रम हिमायल पर्वत पर कहीं था और वहाँ ग्वालों की आबादी रही होगी जो अब ग्वारिच परगने के नाम से प्रसिद्ध है। लोगों का यह भी विश्वास है कि यहाँ पाण्डव राजा विराट की गायों की रक्षा करते थे।

इस जिले के सरयू और घाघरा के संगम पर वाराहक्षेत्र है। लोग कहते हैं कि इसी स्थान पर विष्णु जी ने वाराह अवतार धारण किया था, यद्यपि इस प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिये अन्य तीन स्थान भी दावा करते हैं, तथापि इसमें संदेह नहीं है कि यही शूकरक्षेत्र है जहाँ श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी ने रामायण की कथा अपने गुरु से सुनी थी।

इसके बीच में पसका गाँव है जहाँ एक मन्दिर बना हुआ है और उसमें वाराह भगवान की मूर्ति स्थापित है। इसीके निकट संगम है, जिसको त्रिमोहानी कहते हैं। यहाँ सरयू और घाघरा मिली हैं और पौष भर यहाँ कल्पवास होता है, एवं पूर्णिमा को बड़ा मेला लगता है। दूसरी त्रिमोहानी केराघाट पर है जहाँ टेढ़ी और घाघरा का संगम है।