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उत्तरकोशल और अयोध्या की स्थिति

या विशाखा का वर्णन करेंगे। मेजर (अब कर्नल) वास्ट का कथन है कि यद्यपि साकेत कोशल में था, परन्तु परताबगढ़ का तुसारन विहार साकेत है। पुरातत्त्ववेत्ताओं ने चीनी यात्री ह्वानच्वांग के लिखे भ्रमात्मक स्थानों के नाम और उनकी परस्पर दूरी जान कर अयोध्या को लखनऊ, कुरसी (बाराबंकी), सुजानकोट (उन्नाव), डौंडियाखेड़ा (उन्नाव) से मिलाया है। किन्तु हम कनिंघम से सहमत हो कर यही मानने को तैयार हैं कि अयोध्या विशाखा, (पिसोकिया), साकेत (साची) आदि पर्यायवाची हैं। हम ह्वानच्वांग के आयुतो को भी अयोध्या ही मानते हैं। आगे हम कर्नल वास्ट के तर्कों का उत्तर देने का प्रयत्न करेंगे।

सब से प्रथम कर्नल वास्ट ने कालिदास को उद्‌धृत किया है और यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि मल्लिनाथ की टीका रहते भी साकेत का मतलब अयोध्या से नहीं था। इसके विपरीत हमें यही कहना है कि कालिदास के अनुसार साकेत और अयोध्या एक ही हैं।

पुरमविशदयोध्यां मैथिलीदर्शिनीनाम्।
(रघुवंश, दशम सर्ग, ९६ श्लोक)।
साकेतनार्योऽञ्जलिभिः प्रणेमुः।
(रघुवंश, षोडश सर्ग, १३ श्लोक)।

अब हम यदि कर्नल साहब का कथन सत्य मान लें तो यह भी मानना पड़ेगा कि राम के विवाह के समय की राजधानी बदल कर तुसारन विहार (साकेत) चली गई थी जब वे वन से लौटे। जैनों के प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव आदिनाथ साकेत के राजा नाभि और मेरु देवी के पुत्र थे। जैन लोग बड़ी श्रद्धा से विश्वास करते हैं कि आदिनाथ अयोध्या ही में उत्पन्न हुये थे, और उनके स्मरणार्थ बनाये गये मन्दिर को शाहजूरान के टीले के पास बताते हैं जो हमारे घर से २०० गज़ की दूरी पर है।

परन्तु इससे बढ़कर एक बात जो हमारी राय के पक्ष में है वह बुद्ध जी के दतून के पेड़ का स्थान है। बुद्ध जी ने जब साकेत