(साची या पिसोकिया) में थे एक दतून का पेड़ लगाया था जो छः या सात फुट ऊँचा बढ़ा और जिसे फ़ाहियान और ह्वानच्वांग दोनों ने देखा था।
साची के संबंध में फ़ाहियान कहता है "नगर के दक्षिण द्वार से निकल कर सड़क के पूर्व में एक स्थान है जहाँ बुद्ध देव ने कटीले वृक्ष की एक डौंगी तोड़ कर भूमि में लगा दी थी जहाँ वह सात फुट तक बढ़ी और फिर न घटी न बढ़ी"। यह कथा बिल्कुल उसी के अनुकूल है जो ह्वानच्वांग ने विशाखा के संबंध में कही है कि राजधानी के दक्षिण में और मार्ग की बाईं ओर (अर्थात पूर्व में जैसा फ़ाहियान ने कहा था) एक छः या सात फुट ऊँचा वृक्ष था जो पवित्र समझा जाता था जो न घटता था और न बढ़ता था। यही बुद्धदेव का प्रख्यात दतून का वृक्ष था।
कहा जाता है बुद्धदेव ने साकेत में १६ वर्ष तक निवास किया था। हनुमानगढ़ी के बाद जब हम अयोध्या से फैज़ाबाद की ओर पक्की सड़क पर चलते हैं तो मार्ग की बाईं ओर दतून कुण्ड पड़ता है। यद्यपि सर्वसाधारण का विश्वास है और अयोध्या-माहात्म्य में भी लिखा है कि इस कुण्ड पर भगवान् रामचन्द्र दतून किया करते थे, तथापि विचार यही होता है कि कदाचित् यही स्थान है जहाँ बुद्धदेव ने दतून का वृक्ष लगाया था या जहाँ पर पास ही सरोवर खोदा गया था जिसमें भगवान् बुद्धदेव मुँह धोया करते थे और जो आजकल भी वृक्ष के सूख जाने पर भगवान् बुद्धदेव के अयोध्या के निवास का स्मारक है।
संभव है दक्षिण द्वार हनुमानगढ़ी के पास था। हनुमानगढ़ी से सरयू तक की दूरी एक मील से कुछ अधिक है, किन्तु नदी की गति बदलती रहती है और यात्री (ह्वानच्वांग) के समय में वह कुछ और उत्तर की ओर बहती रही हो। अभी मेरी याद में इस नदी ने बस्ती और गोंडे के ज़िलों की हजारों एकड़ भूमि काट डाली है और वही भूमि अयोध्या में मिल गई है।