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प्राचीन अयोध्या
"सा योजने द्वे च भूयः सत्यनामा प्रकाशते॥"

  अर्थात् द्वादश योजन लम्बी और तीन योजन विस्तृत महापुरी में दो योजन परिखादि द्वारा विशेष सुरक्षित हो "अयोध्या" (जिसे शत्रु जीत न सके) के नाम को अधिक सार्थक करता था। राजधानी अयोध्या पुरी के चारों ओर प्रकार (कोट) था। प्राकार के ऊपर नाना प्रकार के 'शतघ्नी' आदि सैकड़ों यन्त्र (कल) रक्खे हुये थे। इससे यह सिद्ध होता है कि उस समय में तोप की तरह क़िले के बचाने के लिये कोई यन्त्र विशेष होता था। 'शतघ्नी' को यथार्थ तोप कहने में हमें इस लिये सङ्कोच है कि उससे पत्थर फेंके जाते थे। बारूद से काम कुछ न था। महर्षि वाल्मीकि बारूद का नाम भी नहीं लेते। यद्यपि किसी किसी जगह टीकाकारों ने 'अग्निचूर्ण' वा 'और्व्व' के नाम से बारुद को मिलाया है, पर उसका हमने प्रकृति में कुछ भी उपयोग नहीं पाया। अस्तु।

कोट के नीचे जल से भरी हुई परिखा (खाई) थी। पुरी के उत्तर भाग में सरयू का प्रवाह था। सुतरां, उधर परिखा का कुछ भी प्रयोजन न था। उधर सरयू का प्रबल प्रवाह ही परिखा का काम देता था, किन्तु नदी के तट पर भी सम्भव हैं कि नगरी का प्राकार हो। नदी के तीन और जो खाईं थी अवश्य वह जल से भरी रहती थी। क्योंकि नगरी के वर्णन के समय महर्षि वाल्मीकि ने उसका 'दुर्गगम्भीर-परिखा' यह विशेषण दिया है। टीकाकार स्वामी रामानुजाचार्य्य ने इसकी व्याख्या में कहा है कि "जलदुर्गेण गम्भीय अगाधा परिखा यम्याम्"। इससे समझ में आता है कि जलदुर्ग से नगरी की समस्त परिखा अगाध जल से परिपूर्ण रहती थी। सुतरां, इन परिखाओं में जल भरने के लिये जलदुर्ग किसी तरह का कौशल था। इस विषय में कुछ सन्देह नहीं।