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प्राचीन अयोध्या

काठ का बाड़ा बना हुआ था, जैसा अब भी जंगली लोग पशुओं से बचने के लिये जंगल में खड़ा कर लिया करते हैं। इसके सिवाय और सब ब्राह्मणों की कल्पना है!

वेबर को इस पर भी सन्तोष वा विश्वास नहीं हुआ कि "हिन्दुओं के पूर्वजों के पास एक बाड़ा भी रहा हो"। उसने लिख मारा "न अयोध्या हुई और न कोई राम! सब कविकल्पना है"। सीता को हल से जुती हुई धरती की रेखा और आर्य्यों की खेती ठहराई है, और रामचन्द्र तथा बलराम जी (अर्थात् हलभृत् और सीतापति) को एक ही ठहरा कर यह निगमन निकाला है कि लुटेरों से प्रजा को खेती की जो बलराम जी ने रखवाली की इस बात का रूपक बाँध कर रामायण में यों लिखा है कि सीता को राक्षस ने हर लिया और पीछे से सीता के पति रामचन्द्र ने ढूँढ़कर उन्हें राक्षसों से छुड़ा लिया।

वेबर के विचारों की दुर्बलता वा निरंकुशता हम अपने दूसरे लेखों में दिखावेंगे। यहाँ केवल उन हिन्दू-कुलाङ्गारों से निवेदन है जो वेबर आदि को पुरातत्ववेत्ता मान कर उनके पीछे-पीछे अन्धकार में चले जा रहे हैं। वे एक बार रामायण को देखें और फिर विलायत वालों की धृष्टता की परीक्षा करें कि कितना अर्थ का अनर्थ कर रहे हैं। बाँस लकड़ी आदि का जो अयोध्या का दुर्बल प्राकार बता रहे हैं वे अयोध्या के रामायण में इन विशेषणों की ओर ध्यान दें—'बहुयन्त्रायुधवती' 'शतघ्नी-शतसङ्कुला'।

अयोध्या नगरी की सड़कों और गलियों के सुन्दर और स्पष्ट वर्णन से कौन कह सकता है कि वह किसी बात में कम रही होगी? नगर के चारों ओर सैर करने की सड़क थी जिसका नाम 'महापथ' लिखा है। राजप्रासाद (राजमहल नगरी के मध्य भाग में किसी जगह था) के चार द्वार थे। इन द्वारों (दरवाजों) से सर्व्वपण्य-शोभित मार्ग पुरी में