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प्राचीन अयोध्या

मण्डल निवास कर रहे थे। कहीं स्त्रियों का क्रीड़ागार, कहीं गुप्तगृह और कहीं साप्तभौमिक भवन विद्यमान था। कहीं विदेशीय वणिक जन कहीं वारमुख्या (गणिका) बस रही थीं। कहीं आम्रवन, कहीं पुष्पोद्यान और कहीं गोचारण भूमि दिखाई पड़ती थी। किसी स्थान से निरन्तर मृदङ्ग वीणा आदि मधुर ध्वनि आती थी, कहीं सहस्रों नरसिंह सैनिक 'गुफा' की तरह अयोध्या की रक्षा कर रहे थे। महर्षि वाल्मीकि कहते हैं, कि अयोध्या-वासी धर्म्मपरायण, जितेन्द्रिय, साधु और राजभक्त थे, चार वर्ण के लोग अपने अपने धर्म में स्थित थे। सभी लोग हृष्ट, पुष्ट, तुष्ट, अलुब्ध और सत्यवादी थे। अयोध्या के पुरुष कामी, कदर्य और नृशंस नहीं थे और नारी सब धर्मशीला और पतिव्रता थीं। अयोध्या के वीर पुरुष भी राजा के विश्वासपात्र और सरल थे। कम्बोज बाल्हीक, सिन्धु और वनायु देश से अयोध्या में अश्व आया करते और विंध्य, हिमालय से महापद्म ऐरावत प्रभृति भद्रमन्द और मृगजातीय नाना प्रकार के हस्ती। हाय! अब इनकी सत्यता पर विश्वास भी नहीं रहा! योगीश्वर वाल्मीकि की कविता केवल कल्पनामात्र समझी गई। पाठक! पुरानी अयोध्या का यही चित्र हैं।

[सं॰ १९०० के सुदर्शन से संपादक स्वर्गीय पं॰ माधवप्रसाद मिश्र के भाई पं॰ राधाकृष्ण मिश्र की आज्ञा से उद्‌धृत।]