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अयोध्या का इतिहास


[अयोध्या के घर सब ऐसे पदार्थ के बने थे कि उनकी दिवारें दर्पण सी चमकती थीं। उस पर हाथी अपना प्रतिबिंब देखकर टक्कर मारते थे परन्तु जब उनमें से मद न निकलता था तो अपनी भूल समझ जाते थे।

यत्र क्षत्तोद्धृंहिततामसानि रक्ताश्मनीलोपलतोरणानि।
क्रोधप्रमोदौ विदधुर्विभाभिर्नारीजनस्य भ्रमतो निशासु॥

[(यहाँ फिर अभिसारिकार का वर्णन है।) रात को जो स्त्रियाँ अपने उपपतियों के पास जाने को निकलती थीं उन्हें कभी सुख होता था कभी क्रोध, क्योंकि लाल और काले पत्थर के फाटकों में लाल पत्थर की चमक से अँधेरा छँट जाता था और काले पत्थरों से अँधेरा बढ़ जाता था।]

कुमारगुप्त की राजधानी अयोध्या थी और यह सम्भव नहीं कि साम्राट् अपनी राजधानी की झूठी बड़ाई करता। हम यह समझते हैं कि उसने उस समय की अयोध्या का वर्णन किया।

यह तो हुई सनातनधर्मियों की बात, अध्याय ८ में यह दिखाया जायगा कि अयोध्या जैनों का भी तीर्थ है। कलकत्ते के प्रसिद्ध विद्वान् और रईस बाबू पूरनचन्द नाहार ने हमारे पास दो जैनग्रंथों से उद्धृत करके अयोध्या का वर्णन भेजा है। एक धनपाल की तिलकमंजरी (Edited by Pandit Bhavadatta Sastri and Kashi Nath Pandurang Paraba ànd published by Tuka Ram Javaji, Bombay) से लिया गया है और दूसरा हेमचन्द्राचार्य कृत त्रिष्टष्टिशला का पुरुष चरित से। हमने पूरे पूरे दोनों उपसंहार में दे दिये हैं।

तिलकमंजरी का ग्रंथकार अयोध्या की प्रशंसा में मस्त हो गया है। जैसे महाकवि कालिदास ने अयोध्या के मुँह से कहलाया है कि मैंने कैलास को भी अपनी विभूति से अभिभूत कर दिया वैसे ही धनपाल आदि ही