सूत्रामा सूत्रधारोऽस्या शिल्पिनः कल्पजा सुराः।
वास्तुजातामही कृत्स्ना सोद्यानास्तु कथम्पुरी॥७५॥
[अयोध्या सबसे बड़ी पुरी क्यों न हो जब इन्द्र इसके सूत्रधार थे, कल्प के उत्पन्न देव कारीगर थे और सारी पृथिवी से जो सामान चाहा सो लिया।]
संचस्कुरुश्च तां वप्रप्राकारपरिखादिभिः।
अयोध्या न परं नाम्ना गुणेनाप्यरिभिः सुराः॥७६॥
[फिर देवों ने कोट और खाई से इसे अलंकृत किया। और अयोध्या केवल नाम ही से नहीं अयोध्या थी बैरियों के लिये भी अयोध्या[१] थी।]
साकेतरुढिरयप्स्या श्लाघ्यैव सुनिकेतनैः।
स्वनिकेत इवाह्वातुंसाकूतेः केतवाहुभिः॥७७॥
[इसको साकेत इस लिये कहते थे कि इसमें अच्छे अच्छे मकान थे, उन पर झंडे फहराते थे जिससे जान पड़ता था कि देवताओं को नीचे बुला रहे हैं।]
सुकोशलोतिविख्यातिं सादेशाभिख्यया गता।
विनीतजनताकीर्णा विनीतेति च सा मता॥७८॥
[इसका नाम सुकोशल इस कारण था कि उसी नाम के देश का प्रधान नगर था और विनीत जनों के रहने से इसका विनीता नाम पड़ा।]
इन वाक्यों से अत्युक्ति हो परन्तु किसी को क्या पड़ी थी कि निरा झूठ लिख डालता।
- ↑ जिसे कोई जीत न सके।