शुजाउद्दौला ने उसे परिवर्द्धित कर फल पाया। मनसूर अली खाँ के समय से अवध की राजधानी फ़ैज़ाबाद हुई। (फ़ैज़ाबाद वर्तमान अयोध्या से ३ मील पश्चिम ओर है)। अयोध्या की राजश्री फ़ैज़ाबाद के नाम से विख्यात हुई। यहाँ के मुसल्मान मुर्दों के लिये अयोध्या 'करबला' हुई, मन्दिरों के स्थान पर मसजिदों और मक़बरों का अधिकार हुआ, साधु सन्यासी और पुजारियों की जगह मुल्ला मौलवी और क़ाज़ी जी आरूढ़ हुये। अयोध्या का बिल्कुल स्वरूप ही बदल गया। ऐसी ऐसी आख्यायिका और मसनवी गढ़ी गईं जिनसे यह सिद्ध हो कि मुसल्मान औलिये फ़क़ीरों का यहाँ 'क़दीमी' अधिकार है। अब तक भी अयोध्या में 'मणिपर्वत' के पास नवाबी समय का दृश्य दिखलाई देता है। इसी समय नवाब सफ़दर जंग के कृपापात्र सुचतुर दीवान नवलराय ने अयोध्या में 'नागेश्वर नाथ महादेव' का वर्तमान मन्दिर बनवाया।
दिल्ली की बादशाही के कमज़ोर होने से अवध की नवाबी स्वतन्त्र हुई। दक्षिण में मरहठों का जोर बढ़ा। पंजाब में सिक्ख गरजने लगे। सबको अपनी अपनी चिन्ता हुई। प्राणों के लाले पड़ गये। इसी उलटफेर और अन्धाधुन्ध के समय में हिन्दू-सन्यासियों ने अयोध्या में डेरा आ डाला। शनैः शनैः सरयू के तट पर साधुओं की झोपड़ी पड़ने लगीं। शनैः शनैः रामनाम की गूँज व मृदु मधुर ध्वनि से अयोध्या की वनस्थली गूँजने लगी। शाही परवानगी से छोटे छोटे मन्दिर बनने लगे। धीरे धीरे गोसाईं और स्वामियों के अनेक अखाड़े आ जमे और जहाँ तहाँ भस्मधारी हृष्ट-पुष्ट परमहंस और वैरागी दृष्टिगोचर होने लगे। अपने अपने नेता व गुरु की अधीनता में अलग अलग 'छावनी' के नाम सेइ नकी जमात की जमात रहने लगी। ये लोग आजकल के बैरागियों की तरह वृथा पुष्ट और विषयासक्त न थे। भगवद्भजन के साथ साथ भगवती अयोध्या के उद्धार की भी इन्हें चिंता थी। इस लिये कुश्ती करना,