रहते थे और उनके पूर्व में उनकी स्त्री सरमा थी। उसके पूर्व में विघ्नेश्वर थे और उसके पूर्व में पिण्डारक रहते थे। उसके पूर्व में वीरमत्तगजेन्द्र का वास था। पूर्वीय भाग में द्विविद रहते थे और उसके उत्तर-पश्चिम में बुद्धिमान मयन्द रहते थे, दक्षिणी भाग में जाम्बवान और उनके दक्षिण में केसरी। यही दुर्ग की चारों ओर से रक्षा करते थे।"
इनमें से आज-कल ४ ही बचे हैं, हनुमान गढ़ी, सुग्रीव टीला, अङ्गदटीला और मत्तगजेन्द्र, जिसे सर्वसाधारण मातगेंड कहते हैं। हनुमान गढ़ी अब चार कोटवाला छोटा सा दुर्ग दिखाई पड़ता है। यह गढ़ी आसिफ़ुद्दौला के मन्त्री टिकैतराय के द्वारा पुराने स्थान पर बनी थी और एक बड़ी मूर्त्ति स्थापित की गयी थी। प्राचीन छोटी मूर्त्ति उसीके आगे स्थापित है।
अयोध्या प्रधानतः वैरागियों का घर है और हनुमान-गढ़ी उनका दृढ़ दुर्ग है। गढ़ी के वैरागी निर्वाणी अखाड़े के हैं और चार पट्टियों में विभक्त हैं। साधारण पढ़े लिखे हिन्दुस्तानी समझते हैं कि वैरागी लोग बड़े उद्दण्ड होते हैं और उनका एक उद्देश्य खाओ पियो और मस्त रहो है, किन्तु बात ऐसी नहीं है। चेलों को पहिले बड़ी सेवा और तपस्या करनी पड़ती है। उनका प्रवेश १६ वर्ष की अवस्था में होता है यद्यपि ब्राह्मणों और राजपूतों के लिये वह बन्धन नहीं रहता। इन्हें और और भी सुविधायें हैं जैसे इन्हें नीच काम नहीं करना पड़ता। पहिली अवस्था में चेले को "छोरा" कहते और उस ३ वर्ष तक मन्दिर और भोजन के छोटे छोटे बर्तन धोने को मिलते हैं, लकड़ी लाना होता है और पूजा-पाठ करना होता है। दूसरी अवस्था भी तीन वर्ष की होती है और इसमें उसे "बन्दगीदार" कहते हैं। इसमें उसे कुँये से पानी लाना पड़ता है, बड़े बड़े बर्तन माजने पड़ते हैं, भोजन बनाना पड़ता है और पूजा भी करनी पड़ती है। इसको इतने ही समय में (३ वर्ष) तीसरी अवस्था आरम्भ होती है जिसमें इसे "हुड़दंगा" कहते हैं। इसमें इसे मूर्तियों को भोग लगाना पड़ता है, भोजन