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पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/७२

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आज कल की अयोध्या

बाँटना पड़ता है जो दोपहर को मिलता है, पूजा करना पड़ता है और निशान या मन्दिर की पताका ले जाना पड़ता है। दसवें वर्ष में चेला उस अवस्था को जाता है जिसे "नागा" कहते हैं। इस समय वह अयोध्या छोड़ कर अपने साथियों के साथ भारतवर्ष के समस्त तीर्थों और पुण्य स्थानों का परिभ्रमण करने जाता है। यहाँ भिक्षा ही उसकी जीविका रहती है। लौट कर वह पाँचवी अवस्था में प्रवेश करता है और अतीत हो जाता है।

इस अवस्था में वह मृत्युपर्य्यन्त रहता है। अब इसे सिवाय पूजा-पाठ के कुछ काम नहीं करना पड़ता और उसे भोजन और वस्त्र मिलता है।

इससे स्पष्ट है कि वैरागी का काम बेकारी नहीं है। उस नियम से धार्मिक-साधना करनी पड़ती है। वैरागी सदा से हिन्दू-धर्म के रक्षक रहे हैं, इन्हें परिवार का कोई बन्धन नहीं रहता और अपने धर्म के लिये जान देने को तैयार रहते हैं। लखनऊ म्यूज़ियम के एक चित्र से मालूम होता है कि हरद्वार में वैरागियों ने अकबर का कैसा विरोध किया था। सन् १८५५ ई॰ में अयोध्या में जब हिन्दू और मुसल्मानों में बड़ा झगड़ा हो गया था और मुसल्मानों ने गढ़ी पर धावा भी किया था जिसे वे नष्ट-भ्रष्ट करना चाहते थे तो वैरागी ही थे जिन्होंने उन्हें पीछे हटा दिया था। इन्होंने वही वीरता का काम तब भी किया था जब कुछ ही दिन बाद अमेठी के मौलवी अमीरअली ने धावा करने का फिर से प्रयत्न किया था। ये सदा से अपने धर्म के रक्षक रहे हैं और इन्हीं ने अयोध्या को नष्ट होने से बचाया है। ये सिवाय देश के शासक और किसी से नहीं दबते, किन्तु जब दबाव हटा लिया जाता है तो फिर से स्वतन्त्र हो जाते हैं और दूसरे अवसरों पर ये उतने ही शान्त रहते हैं जैसे ईश्वर की सेवा में दत्तचित्त और कोई दूसरी धार्मिक संस्था वाले। उनमें अनेक ऊँचे कुल के हैं, बहुत से रिटायर्ड डिप्टी कलेक्टर और सबार्डिनेट जज हैं। आजकल जो सबसे बड़े महात्मा हैं उनका शुभनाम श्रीसीतारामशरण भगवान् प्रसाद है। वे रिटायर्ड डिप्टी