सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४८
अयोध्या का इतिहास

इन्सपेक्टर आफ़ स्कूल्स हैं। कविकुलदिवाकर सुधारक और भक्त-शिरोमणि तुलसीदास अयोध्या के स्मार्त्त वैष्णव थे। अभी मेरी याद में पन्ना रियासत के भूतपूर्व दीवान जानकीप्रसाद जो बाद में रसिकविहारी कहे जाते थे अयोध्या में आकर रहे और वैरागी होकर कनकभवन के महन्त हो गये। इन्हीं में से एक बाबा रघुनाथदास थे जो मेरे पिता के गुरु थे और जिन्होंने मेरा विद्यारम्भ कराया था; इन्हें भारतवर्ष के भिन्न भिन्न प्रान्तों के लाखों हिन्दू देवता समझ कर पूजते थे। बाबा युगलानन्यशरण और उनके चेले बाबा जानकीवरशरण दोनों संस्कृत और फ़ारसी के बड़े विद्वान् थे और बाबा युगलानन्यशरण जी बड़े कवि भी थे।

हम कह चुके हैं कि वैरागियों के कई अखाड़े हैं। "इन सातों अखाड़ों के नियमित क्रम हैं जिसके अनुसार ये बड़े बड़े मेलों और ऐसे ही अवसरों पर चलते हैं। पहिले दिगम्बरी रहते हैं, फिर उनके बाद निर्वाणी दाहिनी ओर, और निर्मोही बाईं ओर, तीसरी पंक्ति में निर्वाणियों के पीछे खाकी दाहिनी ओर, और निरालम्बी बाईं ओर। और निर्मोहियों के पीछे संतोषी और महानिर्वाणी। हर एक के आगे और पीछे कुछ स्थान ख़ाली रहता है।"

वैरागियों के इस संक्षिप्त वर्णन से तात्पर्य केवल यही है कि आजकल नवशिक्षित युवकों में वैरागियों के प्रति जो कुविचार फैला हुआ है दूर हो जाय कि ये हरामख़ोर हैं और अन्धविश्वासी हिन्दू-जनता के दान से जीते हैं और उसे ही ठगते हैं। प्रत्येक संस्था में बुरे भी होते हैं किन्तु मैं विश्वास के साथ बिना प्रतिवाद के भय से कह सकता हूँ कि अयोध्या के वैष्णव वैरागी जैसा कि वे भगवान् रामचन्द्र के भक्त हैं वैसे उतने त्यागी संयमी भी हैं जितने संसार भर की और भी किसी धार्मिक संस्थाओं के पुरुष होंगे। मैं यह वह कर किसी का अपमान कदापि नहीं करना चाहता।