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अयोध्या का इतिहास

मसजिद में जो मध्य का गुम्बज है वह प्राचीन मन्दिर ही का मालूम होता है और बहुत से स्तम्भ भी अभी ज्यों के त्यों खड़े हैं। ये सुदृढ़ काले कसोटी के पत्थर के बने हुये हैं। खम्भे सात से आठ फ़ुट तक ऊँचे हैं, और नीचे चौकोर हैं और मध्य में अठकोने।

उस झगड़े के बाद जिसका वर्णन अध्याय १४ में है, हिन्दुओं ने मसजिद का आँगन ले लिया और वहाँ एक वेदी बनवा दी। अब एक दीवार खींच दी गई है जिससे कि मसजिद के नमाज पढ़ने वाले मुसलमानों और बाहर वेदी पर पूजा करने वाले हिन्दुओं में झगड़ा न हो।

वेदी के पास ही कनकभवन है जिसे सीता जी का महल कहते हैं। वहाँ पर सीताराम की दो प्रतिमायें प्राचीन हैं। भगवान् रामचन्द्र की प्रतिमा को कनकभवन-विहारी कहते हैं और यह प्रतिमा अयोध्या की इस ढङ्ग की मूर्त्तियों में सब से सुन्दर है। हमारे लड़कपन में यह छोटा सा मन्दिर था किन्तु अब टीकमगढ़ बुन्देलखण्ड के महाराज ने बहुत रुपया व्यय करके एक विशाल मन्दिर बनवा दिया है।

अब हम प्राचीन नगर के ऐतिहासिक मन्दिर त्रेता के ठाकुर पर आते हैं। इसे कूलू (पंजाब) के राजा ने जो जनौरा के ठाकुरों के जैसा कि ऊपर कहा गया है पूर्वपुरुषों में से थे, प्राचीन भग्नावशेष मन्दिर के स्थान पर बनवाया था और फिर इन्दौर की प्रख्यात रानी अहिल्याबाई ने उसमें कुछ सुधार किये थे। कहते हैं कि नौरंगशाह की टूटी हुई मसजिद रामदर्बार के स्थान से बनवाई गई थी। किन्तु फिर किसी ने इस मन्दिर को नहीं बनवाया।

सरयू के तटपर सब से पहिले पश्चिम की ओर लक्ष्मण जी का मन्दिर और लछमन घाट मिलता है, जहाँ कहते हैं कि लक्ष्मण जी ने स्वर्गारोहण किया। मन्दिर में जो मूर्त्ति है वह लक्ष्मण जी के गोरे रंग की नहीं है किन्तु ५ फ़ुट ऊँची चतुर्भुजी काले पत्थर की बनी हुई है। यह सामने के कुण्ड में मिली थी और माना यह गया कि यह काली जी की