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अयोध्या का इतिहास

भीखूमल का मन्दिर है और उसके आगे हमारी सुसराल का मन्दिर सीसमहल है। यह मन्दिर रायदेवी प्रसाद जी ने नव्वे वर्ष हुये बनवाया था। महाराज अयोध्या नरेश के नायब राय राघोप्रसाद जी के समय तक यह मन्दिर अयोध्या के सुप्रसिद्ध मन्दिरों में गिना जाता था। आजकल इसकी दशा शोचनीय है।

इससे कुछ दूर आगे चलकर पुलीस स्टेशन (कोतवाली) है और कुछ दूर दक्षिण शृंगारहाट नाम का बाज़ार है। और उसके पश्चिम महाराज अयोध्यानरेश का महल (राजसदन) और बाग हैं। बाग के दक्षिण भाग में एक सुन्दर शिवालय है। इसे ८० वर्ष हुये राजा दर्शनसिंह ने बनवाया था और इसीलिये दर्शनेश्वर का मन्दिर कहलाता है। अवध गज़ेटियर लिखता है आजकल अवध भर में इससे बढ़कर सुन्दर शिवालय नहीं है।[१] यह मन्दिर बढ़िया चुनार के पत्थर का बना हुआ है और बहुत सा नक़शी काम मिर्ज़ापूर में बनकर यहाँ लाया गया था। शिवलिंग नर्मदा के पत्थर का है। इसका दाम २५०) दिया गया था। संगमर्मर की मूर्तियां जयपूर से मंगाई गई थीं। पहिले यह विचार था कि नेपाल से घंटा मंगवाकर यहाँ लटकाया जाय। परन्तु घंटा राह ही में टूट गया। तब उसी नमूने का घंटा अयोध्या में बनवाया गया। वह भी स्थानीय कारीगरी का अच्छा नमूना है।

राजसदन के दक्षिण खुले मैदान में "तुलसी चौरा" है जहाँ साढ़े-तीन सौ वर्ष पहिले गोस्वामी तुलसीदास जी रहते थे और जहाँ चैत्र शुल्क ९ संवत १९३१ को रामचरितमानस प्रकाश किया गया था। यहाँ से एक मील से कुछ कम की दूरी पर दक्षिण में मणिपर्वत है। जेनरल कनिंघम का कथन है कि मणिपर्वत ६५ फ़ुट ऊँचा टूटी फूटी ईंटों और कंकड़ों का टीला है। सर्वसाधारण उसे आजकल "ओड़ा-


  1. Oudh Gazetteer Vol. I, page 12.