शांति से रहना चाहते थे उनके लिये कोई बाधा न थी। सुरों को जो कदाचित् हिमालय प्रान्त के रहने वाले थे[१] कभी कभी असुरों से लड़ना पड़ता था। कभी कभी असुर ऐसे प्रबल हो जाते थे कि सुरों को पृथिवी (भारत के मैदान) के राजा दशरथ और दुष्यन्त से सहायता माँगनी पड़ी थी। किन्तु हमने कभी नहीं सुना कि असुर नष्ट होगये। यही दशा कोशल के आदिम निवासियों की रही। असुर कहीं चाण्डाल, कहीं दस्यु, कहीं राक्षस और कहीं पिशाच कहलाते हैं। इन्हीं में से एक जाति डोम है। अध्याय ११ में लिखा है कि ईसवी सन् की तेरहवीं शताब्दी में सरयूपार डोमनगढ़ का डोम राजा था जिसे अयोध्या के श्रीवास्तव्य राजा जगतसिंह ने मारा था। मिस्टर नेसफ़ील्ड ने अपने ब्रीफ़ रिव्यु आफ़ दी कास्ट सिस्टम आफ़ दी नार्थ वेस्टर्न प्राविन्सेज़ ऐण्ड अवध (Brief Review of the Caste System of the North-Western Provinces and Oudh) पृष्ठ १०१ में लिखा है, कि "उजड़ी गढ़ियों, उनके नामों और उनके विषय में जनश्रुतियों से प्रकट होता है कि डोम, डोमकटर, डोमड़े या डोवर हिन्दुस्तान में किसी समय में बड़े शक्तिशाली थे। विशेष कर के घाघरा के उत्तर के ज़िलों में. . . इन में कुछ तो भाट और ब्राह्मणों को मिला कर और पक्के हिन्दुओं के आचार विचार सीख कर छत्री बन गये, शेष उनसे बहुत ही नीचे दर्जे पर पड़े रहे। कुछ भंगी बने, कुछ धरकार या बसफोड़ होगये। कुछ तुरहा हुये, कुछ धोबी का काम करने लगे, कुछ धानुक होकर धनुष बनाने लगे। इनमें जो मुसल्मान होगये वे कमङ्गर (कमान बनाने वाले) कहलाये। कुछ मुसल्मान होकर डोम मीरासी बन गये। इस जाति में जो शेष बचे वह घिने काम करते हैं जैसे कुत्ते खाना और जीतों को मारना (जल्लादी)। परन्तु कुमाऊँ में इस जाति के कुछ अच्छे अंश बचे हैं और कारीगरी के काम करते हैं जैसे राजगीरी
- ↑ पितुः प्रदेशास्तव देवभूमयः (कुमारसंभव)।