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अयोध्या के आदिमनिवासी

पतका कहलाते हैं और किसी समय गोरखपूर से बुन्देलखण्ड तक इनके राज में था। कई स्थान पर पुरानी गढ़ियों के खंडहर अब भी देखे जाते हैं। जिन्हें लोग भरों की गढ़ियाँ बतलाते हैं। जिस धुस, टीले, तलाब या मन्दिर के जड़मूल का पता नहीं लगता वह भरों का बनवाया कहा जाता है। शेरिङ्ग ने अपने हिन्दू कास्टस (Hindu Castes) में लिखा है कि मिर्ज़ापूर के पास पहिले पंपापुर नगर बसा था जिसमें अब भी भरों के समय के कुछ खुदे पत्थर पड़े हैं। इनपर जो मूर्त्तियाँ हैं उनके चेहरे मंगोलियन हैं और दाढ़ी नोकदार है। आज़मगढ़ में अब भी जनश्रुति है कि श्रीरामचन्द्र जी के समय में इस प्रान्त में रजभर और असुर रहते थे जो कोशलराज के अधीन थे। भरों की गढ़ियों के भग्नावशेष अब भी आज़मगढ़ के पास हरवंशपूर और ऊँचगाँव में और घोसी में देखे जाते हैं। निज़ामबाद परगने में अमीननगर के पास हरीबन्ध भरों का बनवाया कहा जाता है। ग़ाज़ीपूर के उत्तर सदियाबाद, पचोतर, ज़हूराबाद और लखनेसर परगने भरों के अधिकार में थे। सुल्तानपूर से मिला हुआ कुशभवनपूर बहुत दिनों तक भरों की राजधानी रहा और उनके अधिकार में अवध का सारा पूर्वी भाग था। बहराइच भी भरैच का आधुनिक रूप है। यहीं से भर दक्षिण की ओर फैले थे।

मिर्ज़ापूर के परगना भदोही का मूलरूप भरदही है। यहाँ अनेक गढ़ियाँ और तलाव भरों के बनवाय बताये जाते हैं। इनमें विशेषता यह है सब सूर्यबेधी हैं अर्थात् पूर्व-पश्चिम लम्बे होते हैं। आर्यों के ताल चन्द्रबेधी होते हैं और उत्तर-दक्षिण लम्बे रहते हैं। भरों की बनवाई गढ़ियों की ईंटें १९ इंच लम्बी ११ इंच चौड़ी और २३ इंच मोटी पाई जाती हैं, और जहाँ मिलती हैं उन्हें आजकल भरडीह कहते हैं।

इन्हीं आदिमनिवासियों में एक पासी है। पासी विशेषकर अवध और उससे मिले हुये ज़िलों में पाये जाते हैं जैसे इलाहाबाद,