पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/११७

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अत्युक्ति ११३ ४-संपति सुमेर की कुबेर की जो पावै ताहि, तुरत लुटावत बिलंब उर धारै ना। कहै 'पदमाकर' सुहेम हय हाथिन के, हलके हजारन के बितरै बिचारै ना ॥ गजगंजबकस महीप रधुनाथ राव, याही गज धोखे कहूँ काहू देइ डारै ना। याही डर गिरिजा गजानन को गोइ रही, गिरि ते गरे ते निज गोद तें उतारै ना ॥ ५-दो०-गनत न कछु पारस पदुम चिंतामनि के ताहि । निदरत मेरु कुवेर को तुब जाचक जग माहि ।। सूचना-केवल सुन्दरता, शूरता और उदारता ही में नहीं, बरन् और वस्तुओं में भी अत्युक्ति हो सकती है । यथा- (प्रेमात्युक्ति ) कागद पर लिखत न बनत कहत संदेस लजात । कहि है सब तेरो हियो मेरे हिय की बात ॥ ( विरहात्युक्ति) गोपिन के अँसुवन भरी सदा असोस अपार । डगर डगर नै है रही बगर बगर के वार ॥ इसी प्रकार और भी समझ लो। अत्युक्ति सब वस्तुओं की हो सकती है, परन्तु सुन्दरता, शूरता और उदारता की अत्युक्ति अत्यन्त आनन्ददायक होती है; इसी से परिभाषा में केवल इन्हींके नाम गिनाये गये हैं।