पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/१८

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१४ अलंकारचंद्रिका पुनः- लाल है भाल सिंदूर भरो मुख सिंधुर चारु औ वाह विलाल है। साल है सत्रुन को कवि 'देव' मुसोभित सोमकला धरे भाल है। भाल है दीपत सूरज कोटि सो काटत कोटि कुसंकट जाल है। जाल है बुद्धि विवेकन को यह पारवती को लड़ायतो लाल है। पुनः नामहि के मिरे नुख पाइहों और न काम पिनो जग कामहि । काहि कोऊ न पाइह ये मुत मातु पिता प्रिय बंधु श्री वामहि । बाहि है सिगर भव के ग्मुख होत नहीं छिन हू बिसरामहि । रामहि राम रटी र रटी सब बंद पुगन को है परिनामहि ।। छप्पय सारंग से दृग लाल माल सारंग की सोहत । सारंग ज्यों तनु स्याम बदन लखि सारंग मोहत ।। सारंग सम कटि हाथ माथ बिच सारंग राजत । सारंग लाये अंग देखि छवि सारँग लाजत ॥ सारंग भूपन पीन पट, सारंगपद सारंगधर । रघुनाथदास बंदन करत, सीतापति रघुबंस बर ।। सूचना-स्मरण रखना चाहिये कि लाटानुप्रास में केवल शब्दों ही की नहीं, वरन् वाक्यों तक की श्रावृत्ति हो सकती है, केवल अन्वय से अर्थ में हेरफेर होता है। यमक में जिस अक्षर समूह का आवर्तन होता है वह चार प्रकार का होता है --(1) दोनों निरर्थक, जैसे-"मधुपराजि परा- जितमानिनी" में 'पराजि' का कुछ अर्थ नहीं। यह उत्तम यमक है। (२) एक सार्थक एक निरर्थक-जैसे "है समर समरस सुभट मरुपति बाहनी बिख्यात” में पहले 'समर' का अर्थ है युद्ध और दूसरा समर 'समरस' शब्द का एक खंड होने से निरर्थक है। (३) एक पूर्ण शब्द सार्थक, दूसरा खंड होकर सार्थक, जैसे उरबसी और उरबसी में ये दोनों मध्यम यमक हैं (४) भिन्नार्थवाची दो वा अनेक शब्द-जैसे - ऊपरवाले छप्पय में 'सारंग' शब्द है। यह अधम यमक है।