पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/८

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अलंकारचन्द्रिका

ऐसी सूमता करी न कोऊ समता करी,
सु 'बेनी' कविता करी प्रकास तासु ताकरी।
देव अरचा करी न ज्ञान चरचा करी,
न दीन पै दया करी न बाप की गया करी॥

विवरण—इसमें 'का करी, और 'काक री' में तीन अक्षरों की आवृत्ति; 'वृथा' और 'कथा' में 'थ' की आवृत्ति, सूमता और समता में तीन अक्षरों की आवृत्ति, अरचा और चरचा में दो अक्षरों की आवृत्ति, दया ओर गया में एक अक्षर की आवृत्ति अंत में है। चतुर और चित्त में 'च' 'त' की आवृत्ति आदि में है। दीन और दया में 'द' की आवृत्ति आदि में है।

(ख)—वृत्त्यनुप्रास

दो॰—वर्ण अनेक कि एक की, जहँ सरि कैयौ बार।
सो है वृत्त्यनुप्रास, जो परैं वृत्ति अनुसार॥

विवरण—छेकानुप्रास की तरह आदि वा अंत में एक वर्ण की वा अनेक वर्गों की समता वृत्तियों के अनुकूल कई बार पड़े, उसे वृत्त्यनुप्रास कहेंगे।

सूचना—इस अलंकार को समझने के लिये पहले यह समझ लेना चाहिये कि हिन्दी-कविता में वृत्तियाँ तीन हैं—(१) उपनागरिका, (२) परुषा और (३) कोमला। इन्हीं तीनों के अन्य नाम क्रम से वैदर्भी, गौड़ी और पाँचाली भी हैं।

(१) माधुर्यगुणसूचक वर्ण अर्थात् टवर्ग को छोड़कर शेष मधुर वर्ण और सानुनासिक वर्ण जिस कविता में हो उसे 'उपनागरिका' वृत्ति कहते हैं। (२) टवर्ग, द्वित्तवर्ण, रेफ और श, ष इत्यादि वर्ण और लंबे समास तथा संयुक्त वर्ण जिसमें अधिक हो उसे 'परुषा' वृत्ति और (३) य, र, ल, व,