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अहङ्कार

हाथ जोड़े, रोती और विलाप करती हुई उसके पैरों पर गिर पड़ी और बोली-

महात्माजी, ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिये। आप यहाँ क्यों आये हैं ? आपकी क्या इच्छा है ! मेरा सर्वनाश न कीजिये। मैं जानती हूँ कि तपोभूमि के ऋपिगण हम जैसी स्त्रियों से घृणा करते हैं जिनका जन्म ही दूसरों को प्रसन्न रखने के लिए होता है। मुझे भय हो रहा है कि आप मुझसे घृणा करते हैं और मेरा सर्वनाश करने पर उद्यत हैं । कृपया यहाँ से सिधारिये। मैं आपकी शक्ति और सिद्धि के सामने सिर झुकाती हूँ। लेकिन आपका मुझपर कोप करना उचित नहीं है, क्योंकि मैं अन्य मनुष्यों की भांति आप लोगों की भिक्षावृत्ति और संयम की निन्दा नहीं करती। आप भी मेरे भोगविलास को पापन सममिये । मैं रूपवती हूँ, और अभिनय करने में चतुर हूँ। मेरा काबू न अपनी दशा पर है, और न अपनी प्रकृति पर। मैं जिस काम के योग्य बनाई गई हूँ वही करती हूँ। मनुष्यों को मुग्ध करने ही के निमित्त मेरी सृष्टि हुई है । आप भी तो अभी कह रहे थे कि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। अपनी सिद्धियों से मेरा अनुपकार न कीजिये। ऐसा मन न चलाइये कि मेरा सौन्दथ्य नष्ट हो जाय, या मैं पत्थर तथा नमक की मूर्ति बन जाऊँ। मुझे भयभीत न कीजिये। मेरे तो पहले ही से प्राण सूखे हुए हैं । मुझे मौत का मुंह न दिखाइये, मुझे मौत से बहुत डर लगता है।

पापनाशी ने उसे उठने का इशारा किया और बोला-बच्चा, डर मत । तेरे प्रति अपमान या धुणा का एक शब्द भी मेरे मुख से न निकलेगा। मैं उस महान् पुरुष की ओर से आया हूँ, जो पापियों को गले लगाता था, वेश्याथों के घर भोजन करता था, हत्यारों में प्रेम करता था, पतितों को सान्त्वना देता था।