पृष्ठ:अहंकार.pdf/११

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के दूं। पापनाशी के पतन का कारण इसकी वासनालिप्सा प्राचीन। का अहंकार था। यह अहंकार कितने गुप्त भाव से उस पर सजीव शासन जमाता है, कि ऐसा प्रतीत होता है योगी के पतन में भीछा का भी भाग था। पापनाशी त्याग की मूर्ति है, अत्यन्त पसी, मासमानों को दमन करनेवाला, ईश्वर में रख रहनेवाला, पर इसके साथ ही धार्मिक संकीरांचा और मित्यान्धता भी उसमें कूट-कूट कर भरी हुई है। जो उसके मन को नहीं मानता वह म्लेच्छ है, नारकीय है, अवहेलनीय है, अस्पृश्य है। उसमें सहिष्णुता छू तक नहीं गई है। देखिये वह ठिमाक्कीज़, निसियास का कितने उत्तेजना पूर्य शब्दों में तिरस्कार करता है। धर्मान्धता ने उसकी विचार-शक्ति सम्पूर्णतः बए- हरित कर लिया है। उसकी समझ में नहीं आता कि बिना किसी बदले था फल की आशा के कोई क्योंकर विवृत्ति मार्ग ग्रहण कर सकता है। वह 'थायस' का उद्धार करने चलता है। यहीं से उसके अहंकार का अभिनय प्रारम्भ होता है। हमारे धर्म ग्रन्थों में भी ऋषियों के गर्व- पतन की कथायें मिलती है पर उनका प्रारम्भ ॠषिकी वासना पिसा होता है। ऋषि को अपनी तपस्या का गर्व हो जाता है। विष्णु भगवान उनका गर्व मर्दन करने के लिए उसे माया में फँसा देते हैं, ऋषि का होश ठिकाने हो जाता है। वह अहंकार उदार के भाव से उत्पन्न होता है। 'उद्धार' क्यों? किसी को उद्धार करने का दावा करना ही गर्व है। हम अधिक से अधिक सेवा कर सकते हैं। उछार कैसा? पापनाशी को पालम इस काम से रोकता है। पर उसकी बात पापनाशी के मन में नहीं बैठती । यहाँ से लौठती बार पक्षीयों के दृश्य द्वारा फिर उसे चेतावनी मिलती है, पर वह उस पर ध्यान नहीं देता। यह यात्रा पर चल, खड़ा होता है, इसकन्द्रिया, पहुँचता है, जो उन दिनों यूनान और एथेन्स के बाद प्रिया और, विचार का केन्द्र था। निसिमास से उसकी भेंट होती है, सब थायस से उसका साच्छात होता है। सभी से