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अहङ्कार

यह कहकर पापनाशी ने वाराङ्गना के सुन्दर ललाट को अपने ओठों से स्पर्श किया।

इसके बाद वह चुप हो गया कि ईश्वर स्वयं मधुर, सान्त्वनाप्रद शब्दों में थायस को अपनी दयालुता का विश्वास दिलाये। और 'परियों के रमणीक कुल' में थायस की सिसकियों के सिवा, जो जलधारा की कलकल ध्वनि से मिल गई थी, और कुछ न सुनाई दिया।

वह इसी भाँति देर तक रोती रही। अश्रुप्रवाह को रोकने का प्रयत्न उसने न किया। यहाँ तक कि उसके हब्शी ग़ुलाम सुन्दर वस्त्र, फूलों के हार, और भाँति-भाँति के इत्र लिए आ पहुँचे।

उसने मुसकिराने की चेष्टा करके कहा-

अब रोने का समय बिल्कुल नहीं रहा। आँसुओं से आँखें लान हो जाती हैं, और उनमें चित्त को विकल करने वाला पुष्पविकाश नहीं रहता, चेहरे का रंग फीका पड़ जाता है, वर्ण की कोमलता नष्ट हो जाती है। मुझे आज कई रसिक मित्रों के साथ भोजन करना है, मैं चाहती हूँ कि मेरा मुखचन्द्र सोलहों कला से चमके, क्योंकि वहाँ कई ऐसी स्त्रियाँ आयेंगी जो मेरे मुख पर चिंता या ग्लानि के चिह्न को तुरन्त भाँप जायँगी और मन में प्रसन्न होंगी कि अब इसका सौन्दर्य्य थोड़े ही दिनों का और मेहमान है, नायिका अब प्रौढ़ा हुआ चाहती है। ये ग़ुलाम मेरा शृंगार करने आये हैं। पूज्य पिता, आप कृपया दूसरे कमरे में जा बैठिये और इन दोनों को अपना काम करने दीजिये। यह अपने काम में बड़े प्रवीण और कुशल हैं। मैं उन्हें यथेष्ट पुरस्कार देती हूँ। वह जो सोने की अँगूठियाँ पहने है और जिसके मोती के-से दाँत चमक रहे हैं, उसे मैंने प्रधान मंत्री की पत्नी से लिया है।

पापनाशी की पहले तो यह इच्छा हुई कि थायस को इस