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अहङ्कार

जाता था। लेकिन आदम के प्रेमसूत्र में बँधे होने के कारण उसे यह कब स्वीकार हो सकता था कि उसका पति उससे हीन दशा में रहे-अज्ञान के अन्धकार में पड़ा रहे। उसने पति का हाथ पकड़ा और ज्ञानवृक्ष के पास आई। तब उसने एक तपता हुआ फल उठाया, उसे थोड़ा सा काटकर खाया और शेष अपने चिरसंगी को दे दिया। मुसीबत यह हुई कि आइवे उसी समय बगीचे में टहल रहा था। ज्यों ही हौवा ने फल उठाया वह अचानक उनके सिर पर आ पहुँचा और जब उसे ज्ञात हुआ कि इन प्राणियों के ज्ञानचक्षु खुल गये हैं तो उसके क्रोध की ज्वाला दहक उठी। अपनी समप्र सेना को बुलाकर उसने पृथ्वी के गर्भ में ऐसा भयंकर उत्पात मचाया कि यह दोनों शक्तिहीन प्राणी थरथर कांपने लगे। फल आदम के हाथ से छूट पड़ा और हौवा ने अपने पति के गर्दन में हाथ डाल कर कहा-मैं भी अज्ञानिनी बनी रहूँगी और अपने पति की विपत्ति में उसका साथ दूँगी। विजयी आइवे आदम और हौवा और उनकी भविष्य सन्तानों को भय और कापुरुषता की दशा में रखने लगा। वह बड़ा कलानिधि था। वह बड़े बृहदाकार आकाश-वज्रों के बनाने मे सिद्धहस्त था। उसकी कलानैपुण्य ने सर्प के शास्त्र को परास्त कर दिया अतएव उसने प्राणियों को मूर्ख, अन्यायी, निर्दय बना दिया और संसार में कुकर्म का सिक्का चला दिया। तब से लाखों वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी मनुष्य ने धर्मपथ नहीं पाया। यूनान के कतिपय विद्वानों तथा महात्माओं ने अपने बुद्धिबल से उस मार्ग को खोज निकालने का प्रयत्न किया। फीसागोरस, प्लेटो आदि तत्वज्ञानियों के हम सदैव ऋणी रहेंगे, लेकिन वह अपने प्रयत्न में सफलीभूत नहीं हुए, यहाँ तक कि थोड़े दिन हुए नासरा के ईसू ने उस पथ को मनुष्यमात्र के लिए-खोज निकाला।