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अहङ्कार

निसियास-बड़ी ही सुन्दर युक्ति है, लेकिन हेरमाडोरस, सच्ची बात तो यह है कि मुझे 'अस्ति' और 'नास्ति' में कोई भिन्नता नहीं दीखती। शब्दों में इस भिन्नता को व्यक्त करने की सामर्थ्य नहीं है। 'अनन्त' और 'शून्य' की समानता कितनी भयावह है। दोनों में से एक भी बुद्धि-ग्राह्य नहीं है। मस्तिष्क इन दोनों ही की कल्पना में असमर्थ है। मेरे विचार में तो जिस परमपद, या मोक्ष की आपने चर्चा की है यह बहुत ही महंगी वस्तु है। उसका मूल्य हमारा समस्त जीवन, नहीं, हमारा अस्तित्व है। इसे प्राप्त करने के लिए हमें पहले अपने अस्तित्व को मिटा देना चाहिए। यह एक ऐसी विपत्ति है जिससे परमेश्वर भी मुक्त नहीं, क्योंकि दर्शनों के ज्ञाता और भक्त उसे सम्पूर्ण और सिद्धि प्रमाणित करने में एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं। सारांश यह है कि यदि हमें 'अस्ति' का कुछ बोध नहीं तो 'नास्ति' से भी हम उतने ही अनभिज्ञ हैं। हम कुछ जानते ही नहीं।

कोटा-मुझे भी दर्शन से प्रेम है और अवकाश के समय उसका अध्ययन किया करता हूँ। लेकिन इसकी बातें मेरे समझ में नहीं आतीं। हाँ 'सिसरो'*[१] के ग्रंथों मे अवश्य इसे खूब समझ लेवा हूँ। रासो, कहाँ मर गये, मधु-मिश्रित वस्तु प्यालों में भरो।

कलिक्रान्त-यह एक विचित्र बात है, लेकिन न जाने क्यों जब मैं क्षुधातुर होता हूँ तो मुझे उन नाटक रचनेवाले कवियों की याद आती है जो बादशाहों की मेज पर भोजन किया करते

  1. * इटली का सर्वप्रसिद्ध राजनीताचार्य। उसके राजनैतिक निबन्ध बड़े ही महत्व के हैं और आदर्श माने जाते हैं। कोटा राजनीति का विद्वान् था। दर्शन का उसे अभ्यासा न था। इस शास्त्र से उसे इतना ही प्रेम था कि वह सिसरोके ग्रंथों को समझ लेता था जिनमें पथास्थान दर्शनों की आलोचना भी की गई है।