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अहङ्कार

जो अपने देह-समर्पण का मूल्य एक प्याले शराब से अधिक नहीं समझतीं । मैं यह सब जानते और देखते हुए भी इसी अन्धकार में पड़ी हुई हूँ। मेरे जीवन को धिक्कार है !

उसने पापनाशी को जवाब दिया—

प्रिय पिता, मुझ में अब जरा भी दम नहीं है। मैं ऐसी अशक्त हो रही हूँ मानों दम निकल रहा है। कहाँ विश्राम मिलेगा, कहाँ एक घड़ी शान्ति से लेटूँ? मेरा चेहरा जल रहा है, आँखों से आँच-सी निकल रही है, सिर में चक्कर आ रहा है, और मेरे हाथ इतने थक गये हैं कि यदि आनन्द और शान्ति मेरे हाथों की पहुँच में भी पा जाय वो मुझमें उसके लेने की शक्ति न होगी।

पापनाशी ने उसे स्नेहमय करुणा से देखकर कहा—

प्रिय भगिनी! धैर्य और साहस ही ले तेरा उद्धार होगा। तेरी सुख-शान्ति का उज्ज्वल और निर्मल प्रकाश इस भांति निकत रहा है जैसे सागर और वन से भाप निकलती है।

यह बातें करते हुए दोनों घर के समीप था पहुॅचे। सरो और सनौवर के वृक्ष जो 'परियों के कुञ्ज' को घेरे हुए थे, दीवार के ऊपर सिर उठाये प्रभात-समीर से काँप रहे थे। उनके सामने एक मैदान था। इस समय सन्नाटा पाया हुआ था। मैदान के चारों तरफ योद्धाओं की मूर्तियाँ बनी हुई थी और चारों सिरों पर अर्धचन्द्रा- कार संगमरमर की चौकियाँ बनी हुई थीं, जो दैत्यों की मूर्तियों पर स्थित थीं। थायस एफ चौकी पर गिर पड़ी। एक क्षण विश्राम लेने के बाद उसने सचिन्त नेत्रों से पापनाशी की ओर देखकर पूछा—

अब मैं कहाँ जाऊँ?

पापनाशी ने उत्तर दिया—

तुझे उसके साथ जाना चाहिए जो तेरी खोज में कितनी ही