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अहङ्कार

मैं जानता हूँ कि मैं इस समय अनर्गल बातें कर रहा है, पर इस असार शुभकामनाओं और निर्मूल पछतावे के सिवाय, मैं उस सुखमय भ्रांति का क्या मूल्य दे सकता हूँ जो तुम्हारे प्रेम के दिनों में मुझ पर छाई रहती थी, और जिसकी स्मृति छाया की भांति मेरे मन में रह गई है ? जाओ मेरी देवी, जाओ, तुम परोपकार की मूर्ति हो लिसे अपने अस्तित्व का जान नहीं, तुम लीलामयी सुषमा हो । नमस्कार है, उस सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्कृष्ट मायामूर्ति को जो प्रकृति ने किसी अज्ञात कारण से इस असार, मायावी संसार को प्रदान किया है।

पापनाशी के हृदय पर इस कथन का एक-एक शब्द वज्र के समान पड़ रहा था । अन्त में वह इन अपशब्दों में प्रतिध्वनित हुआ—

हा ! दुर्जन, दुष्ट, पापी ! मैं तुझसे घृणा करता हूँ और तुझे तुच्छ समझता हूॅ! दूर हो यहाँ से, नरक के दूत, उन दुर्बल, दुःखी म्लेच्छों से भी हजार गुना निकृष्ट जो अभी मुझे पत्थरों और दुर्वचनों का निशाना बना रहे थे ! वह अज्ञानी थे, मूर्ख थे, उन्हें कुछ ज्ञान न था कि हम क्या कर रहे हैं, और सम्भव है कि कभी उन पर ईश्वर की दया दृष्टि फिरे, और मेरी प्रार्थनाओं के अनु- सार उनके अन्तःकरण शुद्ध हो जाये, लेकिन निसियास, अस्पृश्य पतित निसियास, तेरे लिए कोई आशा नहीं है, तू घातक विष है। तेरे मुख से नैराश्य और नाश के शब्द ही निकलते हैं। तेरे एक हास्य से उसस कहीं अधिक नास्तिकता प्रवाहित होती है जितनी शैताने के मुख से सौ वर्षों में भी न निकलती होगी।

निसियास ने उसकी ओर विनोदपूर्ण नेत्रों से देखकर कहा—

बधुवर, प्रणाम ! मेरी यही इच्छा है कि अन्त तक तुम विश्वास, घृणा और प्रेम के पथ पर आरूढ़ रहो। इसी भाँति