मूल में 'पापन्युशियस' था। सरलता के विचार से हमने थोड़ा-सा
रूपान्तर कर दिया है।
एक शब्द और । कुछ लोगों को सम्मति है कि हमें अनुवादों
को स्वमातीय रूप देकर प्रकाशित करना चाहिए। नाम सब हिन्दू होने
चाहिएँ । केवल आधार मूल पुस्तक का रहना चाहिये। सम्मति
का घोर विरोधी हूँ। साहित्य में मूल विषय के अतिरिक्त और भी कितनी
ही बाते समाविष्ट रहती हैं। उसमें यथास्थान ऐतिहासिक, सामाजिक,
भौगोलिक आदि अनेक विषयों का उल्लेख किया जाता है । मूल आधार
लेकर शेष बातो को छोड़ देना वैसा ही है जैसे कोई भादमी थाली की
रोटियों साले और दान, मानी, चटनी, अचार सय छोड़ दे। अन्य
भाषामों की पुस्तकों का महत्व केवल साहित्यिक नहीं होता। उनसे हमें
उनके आचार-विचार, रीति-रिवाज आदि, पातों का ज्ञान भी प्राप्त होता
है। इसलिए मैंने इस पुस्तकको 'अपवाने की चेष्टा नहीं की। मिश
की मरमूमि में जो चूत फलता-फूलता है वह मानसरोवर के तट पर
नही पनप सकता।
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-प्रेमचन्द
पृष्ठ:अहंकार.pdf/१८
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