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अहङ्कार

सी जान पड़ती हैं, इनका वह स्वरूप नहीं रहा। ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी स्वाभाविक शोभा का अपहरण हो गया है, मानो मुझ पर उनका स्नेह ही नहीं रहा और मैं पहली ही बार उन्हें देख रहा हूँ। जब मैं इस मेज़ और इस पलंग पर, जो मैंने किसी समय अपने ही हाथों से बनाये थे, इस मसालों से सुखाई हुई खोपड़ी पर, इन भोजपत्र के पुलिन्दों पर जिन पर ईश्वर के पवित्र वाक्य अंकित हैं, निगाह डालता हूँ तो मुझे ऐसा ज्ञात होता है कि यह सब किसी मृत प्राणी की वस्तुएँ हैं । इनसे इतना घनिष्ट सम्बन्ध होने पर भी, इनसे रात दिन का संग रहने पर भी, मैं अब इन्हें पहचान नहीं सकता। आह! यह सब चीजें ज्यों की त्यों है, इनमें जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ। अतएव मुझमें ही परिवर्तन हो गया है, मैं जो पहले था वह अब नहीं रहा । मैं कोई और ही प्राणी हूॅ। मैं ही मृत आत्मा हूँ ! हे भगवन ! यह क्या रहस्य है । मुझमें से कौन-सी वस्तु लुप्त हो गई है, मुझ में अब क्या शेष रह गया है ? मैं कौन हूँ?

और सबसे बड़ी आशंका की बात यह थी कि मन को बार बार इस शंका की निमूलवा का विश्वास दिलाने पर भी उसे ऐसा भासित होता था कि उसकी कुटी बहुत तंग हो गई है, यद्यपि धार्मिक भाव से उसे इस स्थान को अनन्त समझना चाहिए था, क्योंकि अनन्त का भाग,भी अनन्त ही होता है, क्योंकि यही बैठकर वह ईश्वर की अनन्तता में विलीन हो जाता था।

उसने इस शका के दमनार्थ,धरती पर सिर रखकर ईश्वर की प्रार्थना की, और इससे उसका चित्त कुछ शान्त हुआ। उसे प्रार्थना करते हुये एक घण्टा भी न हुआ होगा कि थायस की छाया उसकी आँखों के सामने से निकल गई। उसने ईश्वर को धन्यवाद देकर कहा—