पृष्ठ:अहंकार.pdf/१८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६३
अहङ्कार

प्रभु मसीह, तेरी ही कृपा से मुझे उसके दर्शन हुए। यह तेरो असीम दया और अनुग्रह है, इसे मैं स्वीकार करता हूँ। तू इस प्राणी को मेरे सम्मुख भेजकर, जिसे मैंने तेरी भेंट किया है, मुझे संतुष्ट प्रसन्न और आश्वस्त करना चाहता है। तू उसे मेरी आखों के सामने प्रस्तुत करता है, क्योंकि अब उसका मुस्क्यान नि शस्त्र, उसका सौन्दर्य निष्कलंक और उसके हाव-भाव, दंशहीन हो गये हैं । मेरे दयालु, पतितपावन प्रभु, तू मुझे प्रसन्न करने के निमित्त उसे मेरे सम्मुख उसी शुद्ध और परिमार्जित स्वरूप में लाता है जो मैंने तेरी इच्छाओं के अनुकूल उसे दिया है, जैसे एक मित्र प्रसन्न होकर दूसरे मित्र को उसके दिये हुये सुन्दर उपहार की याद दिलाता है। इस कारण मैं इस स्त्री को देखकर आनन्दित होता हूँ क्योंकि तू ही उसका प्रेषक है। तू इस बात को नहीं भूलता कि मैंने उसे तेरे चरणों पर समर्पित किया है। इससे तुझे आनन्द प्राप्त होता है, इसलिये उसे अपनी सेवा में रख और अपने सिवाय किसी अन्य प्राणी को उसके सौन्दर्य से मुग्ध न होने दे।

उसे रात भर नींद नहीं आई, और थायस को उसने उससे भी स्पष्ट रूप से देखा जैसे परियों के कुञ्ज मे देखा था। उसने इन शब्दों में अपनी आत्मस्तुति की—

मैंने जो कुछ किया है, ईश्वर ही के निमित्त किया है।

लेकिन इस आश्वासन और प्रार्थना पर भी उसका हृदय विकल था। उसने आह भर कर कहा—

मेरी आत्मा, तू क्यों इतनी शोकासक्त है, और क्यों मुझे यह यातना दे रही है।

अब भी उसके चित्त की उद्विग्नता शान्त न हुई । तीन दिन तक वह ऐसे महान् शोक और दुःख की अवस्था में पड़ा रहा जो

१२