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अहङ्कार

दशा से लाभ उठाया, अथवा इस स्वप्न का प्रेरक ईश्वर नहीं, पिशाच था। ऐसी दशा में यह शंका होती है कि पहले के स्वप्नों को देवकृत समझने में मेरी भ्रान्ति थी। सारांश यह कि इस समय मुझमें वह धर्माधर्म का ज्ञान नहीं रहा जो तपस्वी के लिये परमावश्यक है और जिसके बिना उसके पग-पग पर ठोकर खाने की आशका रहती है कि ईश्वर मेरे साथ नहीं रहा—जिसके कुफल मैं भोग रहा हूॅ यद्यपि उसके कारण नहीं निश्चित कर सकता।

इस भाँति तक करके उसने बड़ी ग्लानि के साथ जिज्ञासा की—दयालु पिता ! तू अपने भक्त से क्या प्रायश्चित्त कराना चाहता है, यदि उसकी भावनाएँ ही उनकी आँखों पर परदा डाल दे, अब दुर्भावनाएँ ही उसे व्यथित करने लगे? तू क्यों ऐसे लक्षणों का स्पष्टीकरण नहीं कर देता जिसके द्वारा मुझे मालूम हो जाया करे कि सेरी इच्छा क्या है और क्या तेरे प्रतिपक्षी की ?

किन्तु अब ईश्वर ने, जिसकी माया अभेद्य है, अपने इस भक्त की इच्छा पूरी न की, और उसे आत्मज्ञान न प्रदान किया, तो उसने शंका और भ्रांति के वशीभूत होकर निश्चय किया कि अब मैं थायस की ओर मन को जाने ही न दूँगा। लेकिन उसका यह प्रयत्न निष्फल हुआ। उससे दूर रहकर भी थायस नित्यं उसके साथ रहती थी। जब वह कुछ पढ़ता था, ईश्वर का ध्यान करता तो वह सामने बैठी उसकी ओर ताकती रहती, वह जिधर निगाह डालता उसे उसी की मूर्ति दिखाई देवी, यहाँ तक कि उपासना के समय भी वह उससे जुदा न होती। ज्योंही वह पापनाशी के कल्पना-क्षेत्र में पदार्पण करती, तो योगी के कानों में कुछ धीमी आवाज सुनाई देती, जैसी स्त्रियों के चलने के समय उनके वस्त्रों से निकलती है, और इन छायाओं में यथार्थ से भी