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अहङ्कार

जिसका वह इच्छुक था। इसको रातें एक दीर्घ स्वप्न होती थी, और उसके दिन भी इस विषय में रातों ही के सदृश होते थे। एक रात वह जागा तो उसके मुख से ऐसी पश्चाताप-पूर्ण आहे निकल रही थी जैसी चाँदनी रात में पापाहल मनुष्यों की क़ब्रों से निकला करती है । थायस आ पहुँची थी, और उसके जखमी पैरों से खून बह रहा था। किन्तु पापनाशी रोने लगा कि वह धीरे से उसकी चारपाई पर आकर लेट गई। अब कोई सन्देह न रहा, सारी शंकायें निवृत्त हो गई। थायस की छाया वासना युक्त थी।

उसके मन में घृणा की एक लहर उठी। वह अपनी अपवित्र शैया से झपटकर नीचे कूद पड़ा और अपना मुँह दोनों हाथों से छिपा लिया कि सूर्य का प्रकाश न पड़ने पाये। दिन की घड़ियाँ गुजरती जाती थीं किन्तु उसकी लज्जा और ग्लानि शान्त न होती थी। कुटी में पूरी शान्ति थी। आज बहुत दिनों के पश्चात प्रथम बार थायस को एकान्त मिला। आखिर में छाया ने भी उसका साथ छोड़ दिया, और अब उसकी विलीनता भी भयेफर प्रतीत होती थी। इस स्वप्न को विस्मृत करने के लिए, इस विचार से उसके मन को हटाने के लिए अब कोई अवलम्ब, कोई साधन, कोई सहारा नही था। उसने अपने को धिक्कारा—

मैंने क्यों उसे भगा न दिया ! मैंने अपने को उसके घृणित आलिंगन और तापमय करों से क्यों न छुड़ा लिया ? अब वह उस भ्रष्ट चारपाई के समीप ईश्वर का नाम लेने का भी साहस न कर सकता था, और इसे यह भय होता था कि कुटी के अपवित्र हो जाने के कारण पिशाचगण स्वेच्छानुसार अन्दर प्रविष्ट हो जायेंगे, उनके रोकने का मेरे पास अप कौन-सा मन्त्र रहा?