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अहङ्कार

और उसका भय निर्मूल न था। वह सातो गीदड़ जो कभी उसकी चौखट के भीतर न जा सके थे, अब क़तार बाँधकर आये और भीतर आकर उसके पलंग के नीचे छिप गये। संध्या- प्रार्थना के समय एक और आठवाँ गीदड़ भी आया जिसकी दुर्गन्ध असह्य थी। दूसरे दिन नवाँ गीदड़ भी उनमे आ मिला और उनकी संख्या बढ़ते-बढ़ते ३० से ६० और ६० से ८० तक पहुँच गई । जैसे-जैसे उनकी संख्या बढ़ती थी उनका आकार छोटा होता जाता था, यहां तक कि यह चूहों के बराबर हो गये और सारी कुटी में फैल गये—पलंग, मेज़ तिपाई, फ़र्श, एक भी उनसे खाली न बचा। उनमे से एक मेज पर कूद गया और उसके तकिये पर चारों पैर रखकर पापनाशी के मुख की ओर जलती हुई आँखों से देखने लगा। नित्य नये-नये गीदड़ आने लगे।

अपने स्वप्न के भीषण पाप का प्रायश्चित करने, और भ्रष्ट विचारों से बचने के लिए पापनाशी ने निश्चय किया कि अपनी कुटी से निकल जाऊँ जो अब पाप का बसेरा बन गई है और मरुममि में दूर जाकर कठिन से कठिन तपस्यायें करूँ, एसी-ऐसी सिद्धियों में रत हो जाऊँ बो किसी ने सुनी भी न हो, परोपकार और उद्धार के पथ पर और भी उत्साह से चलें । लेकिन इस निश्चय को कार्यरूप में लाने से पहले, बह सन्त पालम के पास इससे परामर्श करने गया।

उसने पालम को अपने बग़ीचे मे पौधों को सींचते हुए पाया। संध्या हो गई थी। नील नदी की नीली धारा ऊँचे पर्वतों के दामन मे बह रही थी। वह सात्विक हृदय वृद्ध साधु धीरे-धीरे चल रहा था कि कहीं वह कबूतर चौंक कर उड़ न जाय जो उसके कधे पर आ बैठा था।