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अहङ्कार

भगवान्, यही वह स्थान है जो तूने मेरे लिए बताया है। मेरी परम इच्छा है कि मैं यही तेरी दया की छाया में जीवन- पर्यन्त रहूँ।

वह अपने साथ भोजन की सामग्रियों न लाया था। उसे भरोसा था कि ईश्वर मेरी सुधि अवश्य लेगा, और यह आशा थी कि गांव के भक्तिपरायणजन मेरे खाने-पीने का प्रबन्ध कर देंगे और ऐसा ही हुआ भी। दूसरे दिन तीसरे पहर स्त्रियाँ अपने बालकों के साथ रोटियाँ, छुहारे और ताज़ा पानी लिए हुए आई, जिसे वालकों ने स्तम्भ के शिखर पर पहुॅचा दिया।

स्तम्भ का कलश इतना चौड़ा न था कि पापनाशी उस पर पैर फैलाकर लेट सकता, इसीलिए वह पैरों को नीचे-ऊपर किये, सिर छाती पर रखकर सोता था और निद्रा जागृत रहने से भी अधिक कष्टदायक थी। प्रातःकाल उकाब अपने परों से उसे स्पर्श करता था, और यह निद्रा, भय तथा अंगवेदना से पीड़ित उठ बैठता था।

संयोग से जिस पढ़ई ने यह सीढ़ी बनाई थी वह ईश्वर का भक्त था। इसे, यह देखकर चिन्ता हुई कि योगी को वर्षा और धूप से कष्ट हो रहा है और इस भय से कि कहीं निद्रा में वह नीचे न गिर पड़े, इस पुण्यात्मा पुरुष ने स्तम्भ के शिखर पर छत और कठघरा बना दिया ।

थोड़े ही दिनों में उस असाधारण व्यक्ति की चरचा गाँवों फैलने लगी और रविवार के दिन श्रमजीवियों के दल के दल अपनी स्त्रियों और बच्चों को साथ उसके दर्शनार्थ आने लगे। पापनाशी के शिष्यों ने जब सुना कि गुरुजी ने इस विचिन्न स्थान में शरण ली है तो वह पकित हुए, और उसकी सेवा में उपस्थित होकर उससे सम्म के नीचे अपनी कुटियाँ बनाने की आज्ञा