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अहंकार

धारण तप की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। मिस्र के अन्य उच्च महारथियों ने इस सम्मति का अनुमोदन किया। एफरायम और सिरापियम के अध्यक्षों ने यह बात सुनी तो उन्होंने पापनाशी के पास पाकर उसके चरणों पर सिर झुकाया और पहले इस तपस्या के विरुद्ध जो विचार प्रकट किये थे उसके लिए लज्जित हुए और क्षमा माँगी। पापनाशी ने उत्तर दिया—

बन्धुओ, यथार्थ यह है कि मैं जो तपस्या कर रहा हूँ वह केवल उप प्रलोभनों और दुरिच्छाओं के निवारण करने के लिए है जो सर्वत्र मुझे घेरे रहते हैं और जिनकी संख्या तथा शक्ति को देखकर मैं दहल उठता हैं। मनुष्य का बाहारूप बहुत ही सूक्ष्म और स्वल्प होता है । इस ऊँचे शिखर पर से मैं मनुष्यों को चीटियों के समान ज़मीन पर रेंगते देखता हूँ। किन्तु मनुष्य को अन्दर से देखो तो यह अनन्त और अपार है। वह संसार के समाकार है क्योंकि संसार उसके अन्तर्गत है। मेरे सामने जो कुछ है—यह आश्रम, यह अतिथिशालाऍ, नदी पर तैरनेवाली नौकाएँ, यह प्राम, खेत, वन-उपवन, नदियाँ, नहरें, पर्वत, मरुस्थल, वह उसकी तुलना नहीं कर सकते जो मुझमें है । मैं अपने अन्तस्तल में असंख्य नगरों और सीमा- शुन्य पर्वतों को छिपाये हुए हूँ। और इस विराट अन्वस्तल पर इच्छायें उसी भाँति आच्छादित है जैसे निशा पृथ्वी पर आच्छा- दित हो जाती है। मैं, केवल मैं, अविचार का एक जगत् हूँ।

सातवें महीने में इस्कन्द्रिया से 'बुधेस्तीस' और 'सायम' नाम की दो बच्चा स्त्रियाँ, इस लालसा में आई कि महात्मा के आशीर्वाद और स्तम्भ के अलौकिक गुणों से उनको संतान होगी। अपनी ऊसर देह को पत्थर से रगड़ा। इन स्त्रियों के पीछे, जहाँ तक निगाह पहुँचती थी, रथों, पालकियों और डोलियों का एक

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