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अहङ्कार

पुरानी थी । श्रोताओं ने सैकड़ों ही बार इसे सुना होगा, किन्तु वृद्ध की वर्णन-शैली बड़ी चित्ताकर्षक थी। इसने कहानी को मज़़े़ेदार बना दिया था। शराबखानों में मद के प्यासे कुरसियों पर लेटे हुए भाँति-भाँति के सुधारस पान कर रहे थे और बोतलें खाली करते चले जाते थे। नर्तकियाँ आखों में सुरमा लगाये और पेट खोले उनके सामने नाचतीं और कोई धार्मिक या श्रृंगार रस का अभिनय करती थीं।

एकान्त कमरों में युवकगण चौपड़ या कोई और खेल खेलते थे,और वृद्धजन वेश्याओं से दिल बहला रहे थे। इन समस्त दृश्यों के ऊपर वह अकेला,स्थिर, अटल स्तम्भ खड़ा था। उसका गोरूपी कलश प्रकाश की छाया में मुँह फैलाये दिखाई देता था, और उसके अपर पृथ्वी आकाश के मध्य में पापनाशी अकेला बैठा हुआ यह दृश्य देख रहा था। इतने मे चाँद ने नील के अंचल में से सिर निकाला, पहाड़ियाँ नीले प्रकाश से चमक उठीं, और पापनाशी को ऐसा भासित हुआ मानो थायस की सजीव मूर्ति नाचते हुए जल के प्रकाश में चमकती, नीले गगन में निरावलंब खड़ी है।

दिन गुज़रते जाते थे और पापनाशी ज्यों का त्यों स्तम्भ पर आसन जमाये हुए था। वर्षाकाल आया तो आकाश का जल लकड़ी की छत से टपक-टपककर उसे भिगोने लगा। इससे सरदी खाकर उसके हाथ पाँव अंकड़ उठे, हिलना-डोलना मुश्किल हो गया। उधर दिन को धूप की जलन और रात को ओस की शीत खाते खाते उसके शरीर की खाल फटने लगी, और समस्त देह में घाव, छाले और गिल्टियाँ पड़ गई। लेकिन थायस की इच्छा अब भी उसके अंतःकरण में व्याप्त थी, और वह अतर्वेदना से पीड़ित होकर चिल्ला उठता था—