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अहङ्कार

'भगवान ! मेरी और भी सांसत कीजिए, और भी याचनाएँ दीजिए, इतना काफी नहीं है। अब भी इच्छाओं से गला नहीं छूटा, भ्रष्ट कल्पनाएँ अभी पीछे पड़ी हुई है, विनाशक वासनाएँ अभी तक मन को मंथन कर रही है । भगवान्, मुझ पर प्राणी- मात्र के विपय-वासनामों का भार रख दीजिए, मैं उन सवो का प्रायश्चित्त करूँगा। यद्यपि यह असत्य है कि एक यूनानी कुनिये ने समस्त संसार का पाप-भार अपने ऊपर लिया था, जैसा मैंने किसी समय एक मिथ्यावादी मनुष्य को कहते सुना था, लेकिन उस कथा में कुछ आशय अवश्य छिपा हुआ है जिसकी सचाई अब मेरी समझ में आ रही है, क्योंकि इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जनता के पाप धर्मात्माओं की आत्मा में प्रविष्ट होते हैं और वह इस भाँति विलीन हो जाते हैं मानो कुएँ में गिर पड़े हों। यही कारण है कि पुण्यात्माओं के मन से जिवनाल भरा रहता है उतना पापियों के मन में कदापि नहीं रहता। इसलिए भगवान्, मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ कि तूने मुझे ससार का मल- कुड बना दिया है।'

एक दिन उस पवित्र नगर ने यह खबर उड़ी, और पापनाशी के कानों में भी पहुॅची कि एक उच्च-राज्यपदाधिकारी, जो इस्क- न्द्रिया की जलसेना का अध्यक्ष था, शीघ्र ही इस शहर की सैर करने आ रहा है— नहीं, बल्कि रवाना हो चुका है।

यह समाचार सत्य था । बयोवृद्ध कोटा, जो उस साल नील सागर की नदियों और जल मार्गों का निरीक्षण कर रहा था, कई बार इस महात्मा और इस नगर को देखने की इच्छा प्रगट कर चुका था। इस नगर का नाम पापनाशी ही के नाम पर 'पाप- मोचन' रखा गया था। एक दिन प्रभातकाल इस पवित्र भूमि के निवासियों ने देखा कि नील नदी श्वेत पालों से आच्छन्न हो