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अहङ्कार

कर रोग में ग्रस्त होते देखा। उसका शरीर दिनोंदिन क्षीण होने लगा। उसकी टाँगें अब उसे सँभाल नसकतीं, उसके काँपते हुए हाथ शिथिल पड़ गये, उसकी ज्योतिहीन आँखें बन्द रहने लगीं। उसके कंठ से कराहने के सिवा और कोई ध्वनि न निकलती। उसका मन, जो उसकी देह से भी अधिक आलस्यप्रेमी था, निद्रा में मग्न रहता। पशुओं की भाँति व्यवहार करने के दण्डस्वरूप ईश्वर ने उसे पशु ही का अनुरूप बना दिया। अपनी सम्पत्ति के हाथ से निकल जाने के कारण मैं पहले ही से कुछ विचारशील और संयमी हो गया था। किन्तु एक परम मित्र की दुर्दशा से वह रंग और भी गहरा हो गया। इस उदाहरण ने मेरी आँखें खोल दीं। इसका मेरे मन पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि मैंने संसार को त्याग दिया और इस मरुभूमि में चला आया। वहाँ गत बीस वर्ष से मैं ऐसी शान्ति का आनन्द उठा रहा हूँ जिसमें कोई विघ्न न पड़ा। मैं अपने तपस्वी शिष्यों के साथ यथासमय जुलाई, राज, बढ़ई अथवा लेखक का काम किया करता हूँ, लेकिन जो सच पूछो तो मुझे लिखने में कोई आनन्द नहीं आता क्योंकि मैं कर्म को विचार से श्रेष्ठ समझता हूँ। मेरे विचार हैं कि मुझ पर ईश्वर को दयादृष्टि है क्योंकि घोर से घोर पापों में आसक्त रहने पर भी मैंने कभी आशा नहीं छोड़ी। यह भाव मन से एक क्षण के लिए भी दूर नहीं हुआ कि परम पिता मुझ पर अवश्य कृपा करेंगे। आशा-दीपक को जलाये रखने से अन्धकार मिट जाता है।

यह बातें सुनकर पापनाशी ने अपनी आँखें आकाश की ओर उठाई और यो गिला की—

भगवान्! तुम इस प्राणी पर दयादृष्टि रखते हो जिस पर व्यभिचार, अधर्म और विषय-भोग जैसे पापों की कालिमा पुती