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अहङ्कार


इन्द्रियजनित वासनायें उनके मर्मस्थल पर ऐसा अंकुश लगाती थीं कि वे पीड़ा से विकल होकर चीखने लगते थे, और उनकी आर्तध्वनि वन-पशुओं की गरज के साथ मिल कर तारों से भूषित आकाश तक गूंजने लगती थी। तब वही राक्षस और दैत्य मनोहर वेष धारण कर लेते थे, क्योंकि यद्यपि इनकी सूरत बहुत भयंकर होती है, पर वह कभी कभी सुन्दर रूप धर लिया करते हैं जिसमें उनकी पहचान न हो सके। तपस्वियों को अपनी कुटियों में वासनाओं के ऐसे दृश्य देख कर विस्मय होता था जिन पर उस समय धुरन्धर विश्वासियों का चित्त मुग्ध हो जाता। लेकिन सलीब की शरण में बैठे हुए उपस्वियों पर उनके प्रलोभनों का कुछ असर न होता था, और यह दुष्टात्मायें सूर्योदय होते ही अपना यथार्थ रूप धारण करके भाग जाती थीं। प्रातःकाल इन दुष्टों को रोते हुए भागते देखना कोई असाधारण बात न थी। कोई उनसे पूछता तो कहते 'हम इसलिए रो रहे है कि तपस्वियों ने हमको मारकर भगा दिया है।'

धर्माश्रम के सिद्ध पुरुषों का समस्त देश के दुर्जनों और नास्तिकों पर आतंक-सा छाया हुआ था। कभी-कभी उनकी धर्मपरायणता बड़ा विकराल रूप धारण कर लेती थी। उन्हें धर्मस्मृतियों ने ईश्वर-विमुख प्राणियों को दंड देने का अधिकार प्रदान कर दिया था, और जो कोई उनके कोप का भागी होता था उसे संसार की कोई शक्ति बचा न सकती थी। नगरों में यहाँ तक कि इस्कन्द्रिया में भी इन भीषण यंत्रणाओं की अद्भुत दंतकथायें फैली हुई थीं। एक महात्मा ने कई दुष्टों को अपने सोटे से मारा, जमीन फट गई और वह उसमें समा गये। अतः दुष्टजन विशेषकर मदारी, विवाहित पादरी और बेश्यायें, इन तपस्वियों से थर-थर कांपते थे।