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अहङ्कार


वह कामतृष्ण से उन्मत्त होकर एक बार उसके द्वारवक चला गया था। लेकिन वारांगणा के चौखट पर वह ठिठक गया, कुछ तो उठती हुई जवानी की स्वाभाविक कातरता के कारण और कुछ इस कारण कि उसकी जेब मे रुपये न थे, क्योंकि उसकी माता इसका सदैव ध्यान रखती थी कि वह धन का अपव्यय न कर सके। ईश्वर ने इन्हीं दो साधनों द्वारा उसे पाप के अग्निकुंड में गिरने से बचा लिया। किन्तु पापनाशी ने इस असीम दया के लिए ईश्वर को धन्यवाद नहीं दिया, क्योंकि उस समय उसके ज्ञानचक्षु बन्द थे। वह न जानता था कि मैं मिथ्या आनन्द भोग की धुन में पड़ा हूँ। अब अपनी एकान्त कुटी मे उसने पवित्र सलीव के सामने मस्तक झुका दिया और योग के नियमों के अनुसार बहुत देर तक थायस का स्मरण करता रहा; क्योंकि उसने मूर्खता और अन्धकार के दिनों में उसके चित्त को इन्द्रियसुख-भोग की इच्छाओं से आन्दोलित किया था। कई घण्टे ध्यान में डूबे रहने के बाद थायस की स्पष्ट और सजीव मूर्ति उसके हृदय-नेत्रों के आगे आ खड़ी हुई। अब भी उसकी रूपशोमा उतनी ही अनुपम थी जितनी उस समय जब उसने उसकी कुवासनाओं को उत्तेजित किया था। वह बड़ी कोमलता से गुलाब के सेज पर सिर झुकाये लेटी हुई थी। उसके कमलनेत्रों में एक विचित्र आर्द्रता, एक विलक्षण ज्योति थी। उसके नथने फड़क रहे थे, अधर कली की भांति आधे खुले हुये थे और उसकी बाँहें दो जलधाराओं के सदृश निर्मल और उज्वल थीं। यह मूर्ति देखकर पापनाशी ने अपनी छाती पीट कर कहा-

'भगवन्! तू साक्षी है कि मैं पापों को कितना घोर और घातक समझ रहा हूँ।

धीरे-धीरे इस मूर्ति का मुख विकृत होने लगा, उसके प्रोठ के