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अहङ्कार


दोनों कोने नीचे को झुककर उसकी अंत:वेदना को प्रगट करने लगे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें सजल हो गईं। उसका पक्ष उच्छवासों से आन्दोलित होने लगा मानो तूझान के पूर्व हवा सनसना रही हो! यह कुतूहल देखकर पापनाशी को मर्मवेदना होने लगी। भूमि पर सिर नवाकर उसने यो प्रार्थना की:-

'करुणमय! तूने हमारे अंतःकरण को दया से परिपूरित कर दिया है, उसी भाँति जैसे प्रभात के समय खेत हिमकणों से परिपूरित होते हैं। मैं तुझे नमस्कार करता हूँ। तू धन्य है। मुझे शक्ति दे कि तेरे जीवों को तेरी दया की ज्योति समझकर प्रेम करूँ क्योंकि संसार में सब कुछ अनित्य है, एक तूही नित्य, अमर है। यदि इस अभागिनी स्त्री के प्रति मुझे चिन्ता है तो इसका यही कारण है कि वह तेरी ही रचना है। स्वर्ग के दूत भी उस पर दवाभाव रखते है। भगवन क्या, क्या यह तेरे ही ज्योति का प्रकाश नहीं है। उसे इतनी शक्ति दे कि वह इस कुमारी को त्याग दे। तू दयासागर है, उसके पाप महाघोर, घृणित हैं, और उनके कल्पनामात्र ही से मुझे रोमांच हो जाता है। लेकिन वह जितनी ही पापिष्ठा है उतना ही मेरा चित्त उसके लिये व्यथित हो रहा है। मैं यह विचार करके व्यग्र हो जाता हूँ कि नरक के दूत अनन्तकाल तक उसे जलाते रहेगे।।

वह यही प्रार्थना कर रहा था कि उसने अपने पैरों के पास एक गीदड़ को पड़े हुये देखा। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि उसकी कुटी का द्वार बन्द था। ऐसा जान पड़ता था कि वह पशु उसके मनोगत विचारों को भांप रहा है। वह कुत्ते की भांति पूंछ हिला रहा था। पापनाशो ने तुरत सलीब का आकार बनाया और पशु तुप्त हो गया। उसे तत्र ज्ञात हुआ कि आज पहली बार, राक्षस ने मेरी कुटी में प्रदेश किया। उसने चित्त-शान्ति के लिए